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Friday, September 10, 2010

दंडकारण्य की कहानी

 आज पेश है दंडकारण्य की कहानी जहां लंकेश की बहन शूर्पणखा की नाक लक्ष्मण ने काटी थी-

                                                             दण्डकारण्य


रामायण और रामचरित मानस में वर्णित दंडकारण्य का उल्लेख महाभारत और पुराणों में भी बहुतायत से आया है। अबूझमांड़ की पर्वत श्रंखलाओं और कोरापुट के पठारी मैदान में बसा 35,600 कि.मी. में फैला यह दण्डकारण्य छत्तीसगढ़,मध्यप्रदेश,आंध्र और उड़ीसा की सीमाओं को छूता है। दण्डकारण्य के नाम के बारे में ऐसा कहा जाता है कि महाबलशाली राक्षस दण्डक के नाम से यह अरण्य दण्डकारण्य कहलाया। एक और मान्यता के अनुसार जब किसी को राज्य से निष्कासित किया जाता था तो दंडस्वरूप उसे इसी अरण्य में रहना पड़ता था इसलिए भी इसे दण्डकारण्य कहा जाने लगा। तमिल साहित्य में दण्डकारण्य को तंत्रकारण्यम के नाम से संबोधित किया गय़ा है। और मलय भाषा में इसे इंद्रपावन नाम दिया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह वन तंत्र साधना का भी प्रमुख केन्द्र रहा होगा। यूं भी मायावी राक्षसों की निवास स्थली यह दण्डकारण्य तंत्र साधना की भूमि तो रही ही होगी। दण्डकारण्य के दंतेवाड़ा में डाकिनी और शाकिनी राक्षसियों के नाम की दो नदियां आज भी विद्यमान हैं। भगवान राम का दण्डकारण्य-प्रवास ही रात्रसों के विनाश का कारण बना। मान्यता है कि 14 वर्ष के अपने वनवास के तेरह साल भगवान राम ने इसी दण्डकारण्य में ही बिताए थे। नल,.वाकटक और चालुक्यों ने यहां राज्य किया था और यहां के मूलविवासी गौंड भी रहे हैं। रामायण महाकाव्य में तमाम ऐसे स्थानों का उल्लेख है जो आज भी दण्डकारण्य में मौजूद हैं। बाली पुत्र अंगद को लक्षमण यह कहते हुए पकड़ने जाते हैं-

हे राम तुम्हारे कहने से मैं पंपापुर को जाता हूं


और बाली के बेटे अंगद को मैं अभी पकड़कर लाता हूं।

पंपा सरोवर आज भी गोदावरी से थोड़ी ही दूर स्थित है। और सदियां बीत जाने के बाद भी इसका निर्मल,स्वच्छ और मीठा जल लोगों को आज भी आकर्षित करता है। यहीं पर है गीदम गांव जो अतीत में गिद्धम के नाम से प्रसिद्ध था। इसी जगह गिद्धराज जटायु ने सीताहरण कर ले जा रहे रावण से युद्ध करते हुए अपनी जीवनलीला समाप्त करली थी। इस वीर पक्षी को स्वयं राम ने अश्रुपूरित नेत्रों से स्पर्श कर मोक्ष का अधिकारी बनाया था। और उसकी इस तरह से स्तुति की थी-

गीध देह तजि धरि हरि रूपा भूषण बहु पर गीत अनूपा


स्याम गात बिसाल भुज चारी अस्तुति करत नयन भरि पारी।

किष्किंधा यहां की प्रमुख नगरी थी जोकि वानरराज सुग्रीव की राजधानी थी। बाली के छोटे भाई सुग्रीव अपने मंत्री जामवंत और सहयोगी हनुमान के साथ यहीं रहा करते थे। बाली ने धन-बल से सुग्रीव का राज्य हड़प लिया था। जब राम ने लक्ष्मण और सीता सहित इस वन में प्रवेश किया तो सुग्रीव को लगा कि कहीं ये लोग बाली के मित्र न हों इसलिए वस्तुस्थिति को जानने के लिए उसने हनुमानजी को वहां भेजा। ब्राह्मण वेश में हनुमान जब वहां पहुंचते हैं तो उन्हें इस बात की अनुभूति होती है कि ये तो साक्षात उनके इष्टदेव हैं। तब हनुमानजी ने अपना असली रूप बताते हुए भगनान राम से माफी मांगी- एक मैं मंद मोहबस कुटिल हृददय अज्ञान


पुनि प्रभु मोहि बिसारेऊ दीनबंधु भगवान..। और तबसे जीवनपर्यंत हनुमानजी अपने इष्ट देव के लिए समर्पित हो गए। दोनों का यह प्रथम मिलन दण्डकारण्य में ही हुआ था। श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी को यहीं प्रवर्षण पर्वत पर ठहराया गया था। सुग्रीव ने इसी दण्डकारण्य में भगवान श्रीराम को अपनी व्यथा-कथा सुनाई थी कि कैसे उसके भाई बाली ने उसकी पत्नी का हरण किया। और कैसे-कैसे अत्याचार उस पर किये हैं। इसी दण्डकारण्य में पेड़ की ओट से तीर चलाकर भगवान राम ने बाली का वध किया था। और सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बनाया था। दण्डकारण्य आगमन की सूचना जब ऋषियों-मुनियों को मिलती है तो वे रघुकुल स्वामी श्रीराम से यहां प्रवास की याचना करने लगते हैं-

बास करहुं तह रघुकुल राया कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया


चलो राम मुनि आयसु पाई तुरत पंचवटी निअराई।

ऋषियों-मुनियों ने श्रीराम को बताया कि पंचवटी यहां सुंदर-मनोरम स्थान है। आप यहां निवास कर हम सभी को अनुगृहीत करें। साथ-ही-साथ गौतम ऋषि के उग्र श्राप से शिला बनीं अहल्या का भी उद्धार करें-

हे परम प्रभु मनोहर ढाऊं पावन पंचवटी तेहि नाऊं


दंडक बन पुनीत प्रभु कर हूं उग्र श्राप मुनिवर कर हर हूं।

और ऋषियों का आग्रह मानकर राम,लक्षमण और सीता ने पंचवटी को अपना आश्रय-स्थल बना लिया। यह वही पंचवटी है जहां राम के अलौकिक सौंदर्य को देखकर लंकेश दशानन की बहन रक्षसुंदरी शूर्पणखा ने आसक्त होकर उनसे प्रणय निवेदन किया था कि आप से पहले किसी और पुरुष ने मुझे प्रभावित नहीं किया इसलिए अभी तक अविवाहित हूं-

मम अनुरूप पुरुष जग माहीं देखऊँ खोजि लोक तिहु नाहीं


तातें अब लगि रहिऊं कुमारी मनु माना कछु तुम्हु निहारी।

शूर्पणखा को लगा कि मेरी मीठी-मीठी बातों और मायावी सौंदर्य का जादू
मर्यादा पुरुषोत्तम राम के मन में भी आसक्ति का भाव जगा देगा इसलिए उसने बात को और आगे बढ़ाते हुए कहा कि-


रुचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई बोलि बचन बहुत मुसुकाई

तुम सम पुरुष न मो सम नारी यह संजोग विधि तचा बिचारी। शूर्पणखा के इस वाक् जाल का जादू राम पर नहीं चला। मंद-मंद मुस्काते हुए उन्होंने कहा, हे तरुणी मैं तो पहले से ही विवाहित हूं। मेरी पत्नी भी मेरे साथ है। मेरा अनुज लक्ष्मण इस वनप्रांतर में बिल्कुल अकेला है। तुम चाहो तो यह प्रस्ताव तुम उसके सामने रख सकती हो। शूर्पणखा ने जब यह प्रस्ताव लक्ष्मण के समक्ष रखा तो उन्होंने क्रोध में आकर उसकी नाक ही काट डाली। गौर किया जाए तो शूर्पणखा का यह प्रसंग ही राक्षस-वंश के विनाश का कारण बनता है। अपमानित और घायल शूर्पणखा ने जब शिकायतभरे लहजे में इस घटना का व्रतांत अपने भाइयों खर और दूषण को जाकर सुनाया तो वे दोनों क्रोध से आगबबूला हो उठे। और उन्होंने अपने दूत को राम के पास भेजकर तत्काल दण्डकारण्य छोड़ने का फरमान भिजवा दिया। अन्यथा युद्ध लड़ने के लिए तैयार होने को कहा। श्रीराम ने भी दूत के हाथ खर और दूषण को यह कहलवा भेजा-कि-

हम क्षत्री मृगया बन कर हीं तुम्ह से खल गृग खोजत फिरहीं
रिपु बलवंत देख नहिं डरहीं एकबार काल हुं सल लरहीं।
यानी कि हम क्षत्रीय हैं और तुम्हारे जैसे दुष्ट पशुओं को तो हम ढूंढते ही फिरते हैं। हम बलवान शत्रु को देखकर नहीं डरते हैं और लड़ने पर आ जाएं तो एक बार तो काल से भी लड़ सकते हैं। जब यह समाचार लेकर दूत खर और दूषण के पास पहुंचा तो वे दोनों ही युद्द के लिए राम-लक्ष्मण को ललकारने लगे। मगर राम और लक्ष्मण के युद्ध कौशल के आगे ये दोनों टिक नहीं सके। और अंततः शूर्पणखा को ये दोनों भाई इस युद्ध में मारे गए। घबड़ाई हुई शूर्पणखा ने पहले यह समाचार मेघनाथ को जाकर सुनाया और फिर विलाप करती हुई रावण के पास जा पहुंची। इस युद्ध का दार्शनिक पक्ष यह है कि शूर्पणखा वासना का प्रतीक है,जो अपनी माया से राम की मर्यादा और लक्ष्मण के समर्पण को डिगाना चाहती है। जब वह अपने प्रयोजन में सफल नहीं होती है तो वह अपने समर्थन में अभिमानरूपी खर और बुराईरूपी दूषण को लड़ने के लिए लेकर आती है। मगर अंततः वासना, अभिमान और बुराई मर्यादा और समर्पण के आगे पराजित हो जाते हैं। शूर्पणखा ने जब खर और दूषण के मारे जाने का समाचार रावण को सुनाया तो दूरदर्शी रावण यह समझ गया कि खर और दूषण-जैसे पराक्रमियों को मार डालनेवाले ये वनवासी कुमार कोई साधारण चीज नहीं हैं और इन्हें बाहुबल से जीतने के बजाय छल-बल से ही जीतना आसान होगा। चूंकि राम ने रावण की बहन का अपमान किया था इसलिए उसने भी राम की पत्नी के हरण की छली योजना बनाई। दशानन ने अपने अत्यंत अंतरंग साथी महामायावी मारीचि को अपने पास बुलवाया और उसे स्वर्ण मृग बनकर पंचवटी जाने को कहा। मारीचि स्वर्ण मृग बनकर पंचवटी के पास जा पहुंचा। सीता इस अदभुत हिरण के सौंदर्य पर मोहित हो जाती हैं और राम को इसे पकड़कर लाने को कहती हैं। मायावी हिरण कुलांचे मारकर भागने लगता है। राम उसका पीछा करते हुए बहुत दूर निकल जाते हैं। तभी मायावी हिरण के रूप में आया मारीचि मानवीय आवाज में लक्ष्मण---लक्ष्मण चिल्लाने लगता है। मारीचि की मायावी बुद्धि सीता को प्रभावित करने लगती है। उन्हें लगता है कि राम कहीं किसी बड़ी विपत्ति में फंस गए हैं और लक्ष्मण को सहायता के लिए पुकार रहे हैं। वह लक्ष्मण को जाकर वास्तविकता पता लगाने के लिए कहती हैं। लक्ष्मण अपने अग्रज की क्षमताओं से भलीभांति परिचित थे। वह सीता को चिंतित न होने की बात भी कहते हैं मगर माया के प्रभाव में सीता की बुद्धि काम नहीं करती है और वह लक्ष्मण को पता लगाने का आग्रह बार-बार करती हैं। लक्ष्मण विचार करते हैं कि क्या सीता को अकेले छोड़कर उनका जाना उचित होगा। यदि कुछ अनिष्ट हो जाता है तो वे राम को क्या जवाब देंगे। मगर सीता की अवज्ञा भी कैसे करें। अततः वह सीता के चारो ओर एक रेखा खींचते हैं और इस रेखा के पार न करने की हिदायत देकर राम को ढूंढने निकल पड़ते हैं। किसी को भी इसका भान तक नहीं हो पाता कि इस बीच पुष्पक विमान पर सवार होकर रावण दण्डकारण्य आ पहुंचा है। कांकेर के घने जंगलों के बीच ऊसर और बंजर जमीन की पट्टी आज भी विद्यमान है। माना जाता है कि यह जमीन पुष्पक विमान के ईंधन से जलकर बंजर हुई थी। और आज तक बंजर ही है। इस जमीन पर आज भी घास तक नहीं उगती है।
इधर पुष्पक विमान से उतरकर साधुवेष में रावण पंचवटी पहुंता है। और उघर लक्ष्मण राम को ढूंढने जंगल में भटक रहे होते हैं। साधुवेषी रावण सीता से भिक्षान्न मांगता है। सीता के चारो ओर खिंची लकीर के मर्म को वह जान लेता है। वह समझ जाता है कि इस रेखा के भीतर जाने का मतलब है जलकर राख हो जाना। इसलिए वह सीता को रेखा के पार आकर भिक्षा देने को कहता है। भिक्षुक का सम्मान रखते हुए जैसे ही सीता लक्ष्मण रेखा पार कर के भिक्षा देने आती है रावण उसका अपहरण कर के भागने लगता है। जटायु जब यह दृश्य देखता है तो वह सीता को बचाने के लिए रावण से युद्ध करता है। और लड़ते-लड़ते मारा जाता है। संयोगवश जटायु का भाई संपाती रावण को दक्षिण दिशा की और जाते हुए देख लेता है।


चूंकि घटना दण्डकारण्य में हुई। और दण्डकारण्य का राजा सुग्रीव राम की कृपा से ही बना था। इसलिए अपनी वानरसैना के द्वारा सुग्रीव सीता का पता लगाए राम की यह अपेक्षा अनुचित न थी। सुग्रीव ने वैसे आश्वासन भी किया था मगर सत्ता-सुख में वह अपना वादा भूल गया। क्रोधित लक्ष्मण ने सुग्रीव को लताड़ा कि जिसकी बदौलत तुम आज राजा बने बैठे हो और राजवैभव भोग रहे हो वही व्यक्ति आज दुखी है। क्या तुम्हारा कोई नैतिक फर्ज नहीं। तुम्हें आज उनकी मदद करनी चाहिए। लक्ष्मण के यह वचन सुनकर सुग्रीव की सोई हुई नैतिकता जाग उठी और उसने सीता का पता लगाने के लिए अपनी वानरसेना को चारों जिशाओं में रवाना कर दिया। जामवंत,अंगद और हनुमान ने चप्पा-चप्पा छान लिया मगर सीता का कहीं कोई अता-पता नहीं लग सका। तभी इनकी मुलाकात जटायु के भाई संपाती से होती है। उसने बताया कि सीता बेचारी दण्डकारण्य में कहां मिलेगी उसने रावण को उन्हें दक्षिण दिशा में ले जाते हुए देखा है। और इस समय रावण ने उसे अशोक वाटिका में कैद कर के रखा है। फिर अपने भाई जटायु के रावण के हाथों मारे जाने का प्रसंग भी उसने याद दिलाया। राम-लक्ष्मण और सारी वानरसेना हतप्रभ थी कि अब क्या किया जाए। तब संपाती ने ही कहा कि जो एक छलांग में इस समुद्र को लांघ सकेगा वही अशोकवाटिका तक पहुंच सकेगा। अब यह चमत्कारी काम करे कौन इस पर विचार-विमर्श होने लगा। संपाती ने कहा कि भाई, मैं तो बूढ़ा हो चुका हूं इसलिए अब यह मेरे वश की बात नहीं रही। जामवंत बोला कि एक बार जवानी के दिनों में मैं इस समुद्र को फलांग तो चुका हूं मगर अब यह मेरे भी वश का काम नहीं रहा। बाली पुत्र अंगद ने कहा कि मैं समुद्र फलांग तो जाऊंगा मगर वापस आना मेरे लिए संभव नहीं है। इस गभीर विचार विमर्श के दौरान हनुमान बिल्कुल चुपचाप बैठे रहे। तब जामवंत ने हनुमान को उनकी शक्ति याद दिलाते हुए कहा-

कवन सो काज कठिन जग माहीं जो नहिं होई तात तुम्ह पाहिं


राम काज लाग तब अवतारा सुनत हिं भयऊ पर्वतकारा।

जामवंत बोले कि हे हनुमान,जगत में ऐसा कौन-सा कठिन काम है जो तात तुमसे न हो सके। श्रीराम के कार्य के लिए ही तो तुम्हारा अवतार हुआ है। ऐसा सुनते ही हनुमानजी पर्वत के आकार के हो गए और समुद्र पार करने को उन्होंने छलांग लगा दी। इस तरह अशोक वाटिका के लिए हनुमानजी का प्रक्षेपण भी इसी दण्डकारण्य की भूमि से ही हुआ। एक उल्लेखनीय बात राम के चरित्र में ये देखने को मिलती है कि सीता हरण-जैसी मर्मांतक घटना के बाद भी राम कहीं विचलित नहीं दिखे। वे धीर-गंभीर,शांत चित्त और मानवीय संबंधों में मर्यादित व्यवहार की मिठास से भरे हुए ही रहे। इसीलिए वृद्धा शबरी ने रामजी को आमंत्रित किया। और दण्डकारण्य के अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कंद, मूल और फल से उनका आतिथ्य-सत्कार किया-

कंद,मूल,फल सुरस अति दिए राम कहुं आनि प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करते हुए इन फलों को प्रेम सहित खाया। इसी दण्डकारण्य में भगवान राम ने गौतम ऋषि के शाप को झेल रही शिलावत अहल्या को पुनर्जीवित कर श्रापमुक्त किया। शूर्पणखा की नाक न इस दण्डकारण्य में कटती,न खर-दूषण मारे जाते और न सीता का हरण होता। न लंकेश से राम का युद्ध होता। मगर दण्डकारण्य की भूमि को तो रक्ष-संस्कृति के विनाश का माध्यम बनना ही था। इस तरह यह कहा जा सकता है कि जिस दण्डकारण्य में निष्कासन की सजा भुगतने के लिए लोगों को भेजा जाता था वही दण्डकारण्य ऱक्ष संस्कृति के निष्कासन का कारण बना। और रामचरितमानस और रामायण-जैसे महाकाव्यों की लीला भूमि भी। बाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड मे दण्डकारण्य की जनजातियों में पहलव,शक,कंबोज,यवन,म्लेच्छ और किरत जातियों का उल्लेख आया है जिनके आधार पर उस समय की सामाजिक संरचना की पड़ताल संभव हुई है। और इस बात की पुष्टि भी कि रामायण और रामचरितमानस कोरी काल्पनिक घटनाओं के दस्तावेज नहीं हैं बल्कि एक प्रामाणिक इतिहास है जो महाकाव्य की शक्ल में आकर लोकमानस में प्रतिष्ठित हो गया है। शैवभक्त और मातृशक्ति की उपासक रही है दण्डकारण्य की भूमि। 4 कि.मी. चौड़े और 8 कि.मी. लंबी बस्तर की पर्वतमाला को बैलाडिला कहा जाता है। यहां की भाषा में बैलाडिला का अर्थ है-बैल का कूबड़। यह बैल ही शिव का नंदी है। और दंतेश्वरीदेवी मां शक्तिरूपा हैं। नंदी और देवी शैव संस्कृति के प्रतीक हैं। इसप्रकार शैव संस्कृति का केन्द्र रहा दण्डकारण्य भगवान राम के आगमन के बाद वैष्णव संस्कृति का भी केन्द्र बनकर रामायण और रामचरितमानस में हमेशा-हमेशा के लिए दर्ज हो गया।

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पंडित सुरेश नीरव

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