ऊंटों की तैयारी समिति और कामनवेल्थ गेम्स
पंडित सुरेश नीरव
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हमें फख्र होना चाहिए कि कामनवेल्थ गेम की मेजबानी करनेवाले दक्षिण एशियाई देशों में हम अब्वल हैं। अऱे सुनो भाई... हमसे पहले इस क्षेक्ष में किसी भी देश ने अभी तक गुलामों के इस खेल को खेलने की हिम्मत नहीं दिखाई। हमारे सामने गुलामी के खेल में भला और टिक भी कौन सकता है। गुलामी का इतना टिकाऊ भाव और किसी में हैं भी कहां। हम सब सौदागर के उन ऊंटों की तरह हैं जिन्हें गर्दन में रसस्सी डालकर रोज़ खूंटे से बांधा जाता था। फिर स्थिति ऐसी हो गई कि मालिक ने ऊंटों की गर्दनों से रस्सियां हटा लीं। वह सिर्फ ऊंटों के पास जाता,गर्दन पर हाथ फेरता और चला आता। लोगों को यह देखकर ताज्जुब होता कि बिना रस्सी के ऊंट खूंटे से कैसे बंधे रहते हैं। लोगों ने मालिक से इसका रहस्य पूछा तो उसने हंसते हुए कहा कि हमने भले ही इन ऊंटों की गर्दनों से रस्सियां हटाली हैं,मगर इनके अवचेतन में अभी भी रस्सियां बंधी हैं। और हमें देखकर इन ऊंटों के अवचेतन की रस्सियां खुद-ब-खुद बंध जाती हैं। क्या करें हमने तो इन्हें काफी पहले आजाद कर दिया है। सौदागर का नाम माईकल फेनेल हो या कुछ और और.। क्या फर्क पड़ता है,इन ऊंटों को। कनाड़ा के हेमिल्टन शहर से शुरू हुआ-1930 का ब्रिटिश एंपायर गेम्स- 1954 में ब्रिटिश कामनवेल्थ गेम्स हो गया और 1970 में गुलामी की रस्सी का प्रतीक ब्रिटश शब्द हटाकर यही खेल कामनवेल्थगेम्स हो गया। पर ऊंटों की गर्दन में ब्रिटिश शब्द की रस्सी आज 2010 में भी बाकायदा बंधी है। ऊंट खुश हैं कि उन्हे अपने मालिकों की मेजबानी का मौका मिला। अब ऊंट किस करवट बैठेगा यह मालिकों के लिए कोई चिंता-फिकर का विषय नहीं है। क्योंकि ऊंटों की रस्सिंयां अब भी मालिकों के ही हाथ में हैं। बड़ी विनम्रता से दी हैं ऊंटों ने ये रस्सियां,अपने मालिकों के हाथों में। ऊंटों की बस्तियों मे हलचल मची हुई है। किन-किन कारनामों से, कैसे-कैसे अपने आका को हम रिझाएँ। क्या करके दिखाएँ। बस्ती को कैसे सजाएँ। बस्ती की बदसूरती कैसे छिपाएँ। स्वागत-गीत किस राग में गाएँ। ये सोच-सोचकर ऊंटों के काफिले कसमसा रहे हैं। आका के स्वागत की हड़बड़ी में बेचारे ऊंट एक गवैये को 10 करोड़ रुपए दे आए और बदले में दोकौड़ी का गीत उठा ले आए। गवैये की खूब चिरौरी की कि भैया एक धांसू गीत रच। मेहनत से मत बच। मगर ऊंटों की ये चिरौरी गेंडें को गुलगुली मचाने से ज्यादा कुछ साबित नहीं हुई। कुछ उत्साही ऊंट भावुकता में मालिक को रिझाने को 40 करोड़ का एक गुब्बारा खरीद लाए। कुछ खिलंदर ऊंटों ने साढ़े अठारह लाख प्रति साइकिल की किफायती दर से सैंकड़ों साइकिलें खरीद डालीं। उन्हें सस्ते-मंहगे का क्या ज्ञान। ऊंट ही जो ठहरे। ऊंट भी कभी खरीदारी करते हैं क्या। इन ऊंटों के बाप-दादों ने कभी पैसा ही नहीं देखा था। फिर काहे की खरीदारी। अब जब पैसा पानी की तरह बहते देखा तो इन ऊंटों के रेगिस्तानी संस्कार सक्रिय हुए। सुना है इन ऊंटों के पेट में एक थैली होती है जिसमें ये जितना चाहे पानी भर लेते हैं। पानी की तरह बहते पैसे को इन ऊंटों ने सुविधानुसार अपने पेट की टंकी में रख लिया। पता नहीं जिंदगी कब फिर रेगिस्तान हो जाए। वैसे भी खेल क्या है। सब पैसे का ही खेल है। गुलाम ाज मालिकों को रईसी दिखाने पर तुले हैं। रईसी की पोल न खुल जाए इसलिए गुलाम ऊंटों में होड़ मची है। उन्होंने दिल्ली से सारे भिखारी ऐसे गायब कर दिए जैसे आज की राजनीति से ईमानदारी। जैसे बजट आने से पहले जरूरी चीजें कुशल अपराधियों की तरह भूमिगत हो जाती हैं वैसे ही दिल्ली से गरीबी गायब होकर जाने कहां बिला गई है। सड़कों पर रातों-रात बगीचे उग आए हैं। पेराशूटों से राजधानी में बसंत ऋतु उतार दी गई है। आकाओं को कहीं भूले से भी कहीं दुर्गंध न आ जाए। रोज़ सुबह कुक्कुट आसन में रेल की पटरियों पर प्लास्टिक की बोतलों में जल भरकर सूर्य की उपासना करनेवाले राजधानी के ग्यारह लाख सुलभ योगी हाजमें की आतिशबाजी करते हुए कामनवेल्थ के जलसे को रोचक बनाने में जी-जान से जुटे हुए हैं और सरकार के सबसे बड़े बाबू इस प्रगाढ़ उत्सर्जनधर्मिता से बेखबर पूरी पवित्र भावना से फिरंगियों के फ्रेश होने के तीर्थस्थलों का सतर्क मुआयना करने में जुटे हुए हैं। उन्हें फिक्र है कि कहीं मालिकों के कुनबेवालों को कब्ज हो गया तो इस राष्ट्रीय संकट से कैसे निबटा जाएगा। वे जरूरी आपदा प्रबंधन में लगे हैं। उन्हें अच्छी तरह मालुम है कि हर खेल का आरंभ होता है पेट से। और उपसंहार टायलेट से। ऊंटों के बड़े बाबू मन-ही-मन बड़बड़ाते हैं कि मालिकों के लिए तो टायलेट भी मनोरम क्रीड़ास्थल होते हैं। हम मालिकों को बताना चाहते हैं कि आजादी के बाद हमारे टायलेट भी दलित से ललित हो गए हैं। स्टेडियम से ज्यादा इटेलियन टाइल्स तो अब हम अपने टायलेट्स में लगाते हैं। देश के कामन आदमी पर कितना वेल्थ है इसे नापने के पैमाने अब कारखाने नहीं टायलेट्स हैं। टायलेट्स को कारखानों से कम तरजीह दी भी क्यों जाए। टायलेट्स अब सिर्फ टायलेट्स नहीं रह गए हैं। टायलेट्स अब सुलभ उद्योग और बायोगैस के कारखाने हैं। इन्ही टायलेट्स से तोहफे में मिली बायोगैस से हमने मी लार्ड आपके स्वागत में दिल्ली में रोशनी की है। बायोगैस में इस्तेमाल किये जानेवाले कच्चेमाल का दुरुपयोग करनेवाले अपराधी हैं। देश की बहुमूल्य पाकृतिक संपदा से रेल की पटरी पर बैठकर खिलवाड़ करनेवाले इन असामाजिक तत्वों से यदि भारी जुर्माना नहीं बसूला गया तो इनकी इस राष्ट्रविरोधी,अराजक गतिविधियों पर लगाम कैसे कसी जाएगी। अगर सरकार विधिवत एक मंत्रालय बनाकर इनसे नियमित टैक्स बसूल करे तो सरकारी राजस्व में कितना इजाफा होगा यह मैं मुख्यमंत्री को बताऊंगा। दिल्ली की प्रगति के लिए वे पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं। वो दिल्ली को हरा-भरा दिखाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। हो सकता है वह सोनियाजी से मिलकर मानवसंसाधन मंत्रालय की तर्ज पर मानवप्रसाधन मंत्रालय बनाने का वरदान प्राप्त कर ही डालें। और अगर ईमानदारी से इस मंत्रालय ने काम किया तो मानव प्रसाधन मंत्रालय के आंकड़ो से भूख से मरवेवाले लोगों के आंकड़ों को बड़ी तबीयत से धूल चटायी जा सकती है। सीधी-सी बात है कि यदि कोई आदमी भूखा है तो फिर वह प्लास्टिक की बोतल में पानी भरकर रेल की पटरी की तरफ क्या करने जाएगा। तय है कि आत्महत्या करने तो कतई नहीं जाएगा। प्रतिदिन किस इलाके में कितने लोग कितने बजे बोतल लेकर निकले इसका पूरी ईमानदारी से हिसाब रखा जाएगा। इस तकनीकी कार्य को कुशलतापूर्वक निबटाने के लिए सरकार प्रसाधन निरीक्षकों के हजारों पद का सृजन भी कर सकती है। ये प्रसाधन निरीक्षक समय-समय पर आंकड़े देंगे और सरकार गर्व से बताया करेगी कि भूख से मरनेवालों के मुकाबले प्रसाधन के लिए जानेवाले लोगों का आंकड़ा 80% ज्यादा है। इससे सिद्ध होता है कि हमारी सरकार की विकास योजनाएं कारगर हैं और सही ढंग से काम कर रही हैं। हमारी सरकार की प्रसाधन दर पिछली सरकार से 13.6% अधिक है। जो यह साबित करने के लिए काफी है कि पिछली सरकार नकारा और गरीब विरोधी थी। विरोधी दल सरकार के इस हाहाकारी और मर्मांतक हमले से तिलमिला जाएगा। वह सरकार के इस खतरनाक हमले की काट में स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े पेश करते हुए देश की जनता को बताएगा कि प्रसाधन मंत्रालय ने जो 13.76 % की बढ़त का जो आंकड़ा पेश किया है उस बढ़त में सरकार का कोई योगदान नहीं है। यह बढ़त तो प्रसाधन मंत्रालय को हैजा,डायरिया और डिसेंट्री-जैसी स्वदेशी बीमारियों की अनुकंपा से तोहफे में मिली है। इसमें सरकार की कल्याणकारी नीतियों का कोई योगदान नहीं है। अरे हमारे शासन काल में तो भारत का बच्चा हो या जवान,मजदूर हो या किसान सभी दिन में तीन बार प्रसाधन के लिए जाते थे जो यह सिद्ध करने के लिए काफी है कि हमारी सरकार में अनाज और सब्जियों के गोदाम पूरी तरह आम आदमी से जुड़े हुए थे। उस वक्त प्रति व्यक्ति कामनवेल्थ का सृजन आज के मुकाबले तीन गुना ज्यादा कर रहा था। आज की सरकार, आज उसी कामनवेल्थ से गेम कर रही है। तभी ख्वाबों में खोए बड़े बाबू के सपनों को खांसी के बुलडोजर से रौंदते हुए एक गुलाम ऊंट बोला, सर..18.30 लाख रुपए की दर से खरीदी प्रति साइकल की घड़ी-घड़ी चेन उतर रही है। इससे सभी खिलाड़ी बड़े बेचैन हैं। और 25 लाख रुपए प्रति कुर्सी की दर से खरीदी हरइक कुर्सी आज अपने बैठनेवाले को ढ़ूंढ़ रही है। क्या करें सर आज यदि भिखारियों को दिल्ली से न भगाया होता तो उन्हें ही बैठा देते। कुछ देर के लिए उनके भी दिन फिर जाते। बड़े बाबू ने मातहत को डांट पिलाते हुए कहा, ऊंट हो ऊंट ही रहोगे। अरे भिखारी नहीं है तो क्या हुआ। मास्टर किस दिन काम आएंगे। उन से बोलो कि स्कूल से लड़के-लड़कियों को बटोर कर लाएं। और हमारे आकाओं को रिझाएं। सुनो..एक बार रोम में अकाल पड़ा था। तो राजा ने स्टेडियम में खेल शुरू करा दिए थे। लोग भूख को भुलाने के लिए स्टेडियम में ही जाकर बैठने लगे। तुम दिल्ली में अकाल पैदा कर दो। ट्रकों और मालगाड़ियों की आवाजाही बंद कर दो। सब्जी,फल,दूध सब गायब हो जाएगा। फिर कामन मैन कहां जाएगा। झक मार के यहीं स्टेडियम में ही आएगा। यह प्रायोजित अकाल ही हमारे लिए दर्शकों का अकाल मिटाएगा। तभी मोबाइल की घंटी बजी। अच्छा मैं चलता हूं,बड़े बाबू बोले, अभी-अभी अरजेंट मेसेज आया है कि हमारे आकाओं के टायलेट्स जाम हो गए हैं। मीडियावाले इसका कारण खिलाड़ियों और रूपसियों के बीच पैदा हुए अंतरंग(गुप्तरंग) सिंथेटिक-सदभाव को बता रहे हैं। बेचारे बड़े बाबू.. ट्रेफिक जाम से बचे तो टायलेट जाम में फंसे। और अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे यह कह-कहकर लोग हंसे..।
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