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Monday, October 18, 2010

गुमनाम ही रहे जो तमाशा नहीं हुए

जय लोकमंगल-जयलोकमंगल-जयलोकमंगलजय लोकमंगल-जयलोकमंगल-जयलोकमंगल






ग़ज़ल-

अपनी नजर में जो कभी अदना नहीं हुए
इस जिंदगी में वो कभी तनहा नहीं हुए

 हंसने की आदतें मेरी अब तक नहीं गई
 यूं जिंदगी में हादसे क्या-क्या नहीं हुए

पलकों की छांव की जिसे पल-पल तलाश है
ऐसा भटकता हम कोई सपना नहीं हुए

खुद अपनी आंच में दिये-सा जो जले न वो
अहसास की नजर का उजाला नहीं हुए

सागर हुई हैं लहरें जो सागर में खो गईं
सिमटे रहे जो कतरे वो दरिया नहीं हुए

उन गुलशनों के नाम पर आती हैं रौनकें
जो जलजलों के बाद भी सहरा नहीं हुए

बढ़ते कदम को रोकना जिनका रहा है शग्ल
दीवार तो बने कभी रस्ता नहीं हुए

मिलती हैं शौहरतें यहां रुसवाइयों के बाद
गुमनाम ही रहे जो तमाशा नहीं हुए

नींदों के गांव की जिसे हर पल तलाश है
अच्छा हुआ कि ऐसा हम सपना नहीं हुए।

पंडित सुरेश नीरव
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 मकबूलजी जिंदाबाद--
शायरेआजम जनाब मृगेन्द्र मकबूल साहेब,आदाब। आपका कलाम पढ़ा। बेहतरीन और उम्दा शेरियत के शेर हैं जो आपने गजल में पेश किए हैं। आपकी कलम और कलाम दोनों कमाल के हैं। आप तो ग़ज़ल के दादा फालके हैं। आपके जलवे जलबो-जलाल के हैं।
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आपके चाहनेवालों की ब्लाग पर नफरी काफी है
राजमणिजी...
आपने बहुत बेहतरीन गज़ल पेश की है। आप तमाम व्यस्तताओं के बावजूद ब्लाग पर लिख लेते हैं ये एक बड़ी बात है। मुझे अच्छा लगेगा यदि आप कुछ ज्यादा और जल्दी -जल्दी लिखा करें। आपके चाहनेवालों की ब्लाग पर नफरी काफी है। और कहने को आपको भी अभी बहुत बाकी है। आपकी हर अदा बला की है।
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