मित्रो, इधर कोई नई ग़ज़ल नहीं कह पाया लिहाजा अपनी पसंदीदा सबा अफगानी की एक ग़ज़ल पेश है।
तेरे जलवे अब मुझे हर सू नज़र आने लगे
काश ये भी हो के मुझ में तू नज़र आने लगे।
इब्तिदा ये थी के देखी थी खुशी की इक झलक
इंतिहा ये है के ग़म हर सू नज़र आने लगे।
बेक़रारी बढ़ते बढ़ते दिल की फितरत बन गई
शायद अब तस्कीन का पहलू नज़र आने लगे।
ख़त्म कर दे ऐ सबा अब शामे-ग़म की दास्ताँ
देख उन आँखों में भी आंसू नज़र आने लगे।
मृगेन्द्र मक़बूल
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