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Sunday, October 31, 2010

दोस्त मीठा हो गया है उस जहर-सा आजकल

ग़ज़ल-
हम नहीं मिलते हमीं से एक अरसा आजकल
रूह में रहने लगा है एक डर-सा आजकल


दर्द के सेहरा में भटके आंख में आकर टिके
आंसुओं को मिल गया है एक घर-सा आजकल


दर्द के पिंजरे में कैदी उम्र का बूढ़ा सूआ
लम्हा-लम्हा जी रहा है इक कहर-सा आजकल


बर्फ के घर जन्म लेकर प्यास से तड़फा किए
जी रहा हूं रेत में गुम इक लहर-सा आजकल


फूल-पत्ती-फल हवाएं साथ अब कुछ भी नहीं
ठूंठ में जिंदा दफन हूं इक शजर-सा आजकल


इस हुनर से जान ले की दूर तक चर्चा न हो
दोस्त मीठा हो गया है उस जहर-सा आजकल


हो जहां साजिश की खेती और फरेबों के मकान
आदमी लगने लगा है उस शहर-सा आजकल।


पं. सुरेश नीरव

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