हम नहीं मिलते हमीं से एक अरसा आजकल
रूह में रहने लगा है एक डर-सा आजकल
दर्द के सेहरा में भटके आंख में आकर टिके
आंसुओं को मिल गया है एक घर-सा आजकल
दर्द के पिंजरे में कैदी उम्र का बूढ़ा सूआ
लम्हा-लम्हा जी रहा है इक कहर-सा आजकल
बर्फ के घर जन्म लेकर प्यास से तड़फा किए
जी रहा हूं रेत में गुम इक लहर-सा आजकल

फूल-पत्ती-फल हवाएं साथ अब कुछ भी नहीं
ठूंठ में जिंदा दफन हूं इक शजर-सा आजकल
इस हुनर से जान ले की दूर तक चर्चा न हो
दोस्त मीठा हो गया है उस जहर-सा आजकल
हो जहां साजिश की खेती और फरेबों के मकान
आदमी लगने लगा है उस शहर-सा आजकल।
पं. सुरेश नीरव
---------------------------------------------------------------------

No comments:
Post a Comment