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Saturday, October 9, 2010

आचार्य सारथी की ग़ज़ल

आदरणीय नीरवजी
आपने ब्लाग को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बना दिया है। इसमें जो सामग्री आती है वह काफी स्तरीय है और इसके स्तर में दिन-ब-दिन इजाफा हो रहा है मेरी शुभ कामनाएँ। आज में भी आचार्य सारथीजी की एक गजल उनके संग्ह अनहद से पेश कर रहा हूं। उम्मीद है कि साथियों को पसंद आएगी।
- मुकेश परमार
आ खामोशी तुझको ओढ़ूं
फिर अपने बारे में सोचूं


भूखा रहकर रात गुजारूं
फिर जहान के भीतर झांकूं

आवाजों में क़ैद हूं
ख़ामोशी से कैसे बोलूं


सब शब्दों के दीप जलाकर
धरती के आंगन में रख दूं


बर्फीले मंजर बिखरे हैं
कैसे अपनी आग समेटूं

मुझको तेरी खबर नहीं है
खुद से इतनी दूर हुआ हूं।
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