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Sunday, November 14, 2010

दुर्लभता का सुलभ संस्करण


आदरणीय हंसजी,
आपका भावुक वक्तव्य पढ़ा। आपने समीक्षा को जो नई भाषा दी है,उसकी प्रान्जलता और प्रासादिकता अदभुत है। अप्रतिम है। ऐसा लेखन वही कर सकते है जो किसी में पूरी तरह एकात्म कर लेता है। आप आकंठ नीरवमय हैं। तभी ितना भावप्रवण लिख पाते हैं। इतनी निष्ठा और समर्पण आज के दौर में दुर्लभ है। आप इस संदर्भ में स्वयं एक दुर्लभता का सुलभ संस्करण हैं। ौर आपकी ये पंक्तियां स्वतः सिद्ध हैं-
पंडित सुरेश नीरवजी ने कैसे अद्भुत, अलौकिक, अनुपम एवं दिव्य आलेख का सृजन किया है जो हर किसी की पहुँच से परे है। पंडितजी की शब्दरुपी ईंट से , मात्रारुपी गारे से , अनुभूतिरुपी कन्नी से और भावरुपी संबल जो गद्यरुपी अक्षय दीवार निर्मित की है वह कहीं पद्य से ज्यादा अनन्तता की गहराइयों तक पहुँचती है अर्थात पंडितजी की गद्य पद्य से ज्यादा मार्मिक है। मैं यही कह सकता हूँ कि पंडित सुरेश नीरवजी जहाँ कविता के विश्ववन्दित विद्वान हैं वहीँ उससे ज्यादा गद्य के भी शब्दपारिखी हैं और शब्दऋषि हैं। धन्य है उनकी विद्वतता। मैं ऐसे शब्दऋषि को कोटि-कोटि नमन करता हूँ। जय लोक मंगल। आपकी निश्छल मेधा को वंदन..
डाक्टर प्रेमलता नीलम

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