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Saturday, November 6, 2010

लक्ष्मी उल्लुओं पर ही मेहरबान होती हैं


हास्य-व्यंग्य-
रिटायरमेंट से पहले रिटायरमेंट के बाद
पंडित सुरेश नीरव
 कल सड़क पर भदौरियाजी-जैसे कोई सज्जन दिखे। भदौरियाजी-जैसे इसलिए कह रहा हूं क्योंकि थे तो वह भदौरियाजी ही मगर अब उनकी चाल में वह अकड़ नहीं दिख रही थी। मुझे लगा शायद मैं ही गलत हूं। यह भदौरियाजीजी तो कतई नहीं हो सकते। फिर सोचा हो भी सकते हैं। हो सकते हैं...नहीं हो सकते हैं के विचारों का टूर्नामेंट फटाक से मेरे दिमाग के स्टेडियम में शुरू हो गया। और जैसे कामनवेल्थ गेम के समय हमारी दिल्ली खुदी थी  कुछ-कुछ उसी तर्ज पर मेरा दिमाग भी खुदने लगा। मैं अपने भीतर शुरू हुई खुदाई से हैरान हुआ जा रहा था कि अचानक किसी ने पीठ पर नमस्ते का छुरा घोंप दिया। कराहता हुआ मैं पीछे मुड़ा। नमस्ते घौंपनेवाले सज्जन बाकायदा भदौरियाजी ही निकले। बस..चेहरे से मूंछें गायब थीं। ऊपर का होठ ऐसा सूना और वीरान लग रहा था जैसे अतिक्रमण दस्ते द्वारा पटरी से दुकान के हटाए जाने के बाद फुटपाथ लगता है। खानदानी ठाकुर की अचानक मूंछे गायब होना किसी बड़े हादसे की खबर होती है। मन-ही-मन सोचा शायद भदौरियाजी के पिताजी चल बसे। घर में सब ठीक तो हैं,मैंने उत्साहपूर्वक प्रश्न किया। और मन में फंसी फांस को प्रश्न के पिन से निकालने की एक सतर्क कोशिश की।
-जी..हां, सब प्रभु की कृपा है। इतनी तसल्ली से दिए गए उनके उत्तर ने मुझे घोर निराशा के दलदल में डुबो दिया। सारे अरमानों पर पानी फिर गया। अगर जो मैं सोच रहा था,उसी नस्ल का जवाब मिलता तो लंबी बातचीत का सिलसिला शुरू होता। भावुकता दिखाने का पाखंड प्रदर्शन होता। आत्मा-परमात्मा की बातें होतीं। और लोगों को सुनाने के लिए एक रोचक खबर होती। वैसे भी किसी की भी मृत्यु का समाचार बड़ी राहत देता है। ऐसा लगता है जैसे कि बसस्टाप की लाइन में खड़े लोगों पर ब्ल्यू लाइन बस अचानक चढ़ जाए। बगलवाला आदमी बस का शिकार हो जाए और हम खुद बाल-बाल बच जाएं। उस हादसे के बाद सुकून का स्वाद वही जानता है,जिसने कभी हादसे का स्वाद चखा हो। ठीक वैसे ही-जैसे सामनेवाला नीबू चूसे ओर पानी देखनेवाले के मुंह में आए। मगर भदौरियाजी का उत्तर सुनकर तो अपना मुंह ही सूख गया। पूरी उम्मीद के सात फिर एक उछाला-ये अचानक आपकी मूंछों को क्या हुआ। ही.ही.ही.हो... इसीलिए ही आप पूछ रहे थे कि घर में सब राजी-खुशी तो हैं। भदौरियाजी ने खिसियानी हँसी हँसते हुए कहा-दरअसल में रिटायर हो गया हूं। अफसर था तो मूंछों का रोब-दाब था।अब किस पर हुक्म चलाना है। अब तो बीवी और बच्चे भी अपने पर ही हुक्म चलाएंगे। और यदि मूंछें हों तो हुक्म मानने में बड़ी बाधा आती है। इसलिए अपन ने तो मूंछे मुंड़ाकर हुक्म मानने की पूरी मानसिक तैयारी कर ली है। वैसे पिताजी अभी जीवित हैं। गांव में खेती कराते हैं। इस संसार में जिसने भी जन्म लिया है,एक दिन उसे इस संसार से जाना ही पड़ता है।  वैसे ही जो भी नौकरी में आता है एक दिन रिटायर होता ही है। यह बात तो आपको मालुम होगी ही। तो जब रिटायर होना ही था तो फिर आपने मूंछे रखी क्यों थीं। आप भी क्या बात करते हैं,पंडितजी,अरे बुढ़ापे की सोचकर कोई सुहागरात थोड़े ही छोड़ देता है। उन्होंने जिंदगी का फलसफा हमें समझाया। और अपनी बात को मनवाने के लिए हमें उदाहरण दिया कि जैसे विधवा होते ही स्त्री अपने शरीर से श्रृंगार के सारे साधन हटा लेती है वैसे ही रिटायर होते ही आदमी को शरीर से रोबदार चीजों को हटा देना चाहिए।  मसलन मूंछे एंठना और अंग्रेजी बोलना। भदौरियाजी धारावाहिक शैली में कहे जा रहे थे-कि जैसे शहरों के चौराहों पर विज्ञापन लगे रहते हैं-शादी से पहले-शादी के बाद..वैसे ही समाजसेवी संस्थाओं को जनहित में पोस्टर लगाने चाहिए। कि रिटायरमेंट से पहले और रिटायरमेंट के बाद। मैंने कहा लेकिन रिटायरमेंट के तो अलग-अलग ढंग हैं और अलग-अलग रंग हैं। कोई रिटायरमेंट की उमर में पहुचकर रिटायर होता है तो कोई स्वेच्छा से  समय से पहले ही रिटायर हो जाता है और कुछ बहादुरों को जबरदस्ती रिटायर किया जाता है। और ये जबरदस्ती रिटायरमेंट सिर्फ कर्मचारियों का ही नहीं होता,खिलाड़ियों का भी होता है। अब चाहे खिलाड़ी खेल के मैदान में हो या राजनीति के। जनता और मीडिया भी रिटायरमेंट के लिए वातावरण तैयार करता है। खिलाड़ी आखिरी दम तक कहता है कि न मैं टायर हूं और न रिटायर हूं मगर गंगा किनारे भक्तजनों द्वारी हरि बोल...हरि बोल के शोर में डूबते लाचार की गुहार कौन सुनता है। उस बेचारे को जबरिया रिटायरमेंट देकर घर बैठा दिया जाता है। रूपकुंअर की तरह उसे बलात सता कर दिया जाता है। भक्तों और चमचों से सताया हुआ,निरीह रिटायर जीव फिर अंतर-आत्मा की आवाज का संगीत सुनता रहता है,अपने घर में बैठा हुआ। वैसे भी अंतरआत्मा का मौन रिटायरमेंट के बाद ही मुखर होता है। मैंने भदौरियाजी के सामने अपना गुप्त ज्ञान सार्वजनिक किया। दीर्घशंका से त्रस्त किसी मनुष्य को सुलभ शौचालय दिखने के बाद जैसी बायलोजिकल प्रसन्नता होती है,कुछ-कुछ उसी डिजायन की खुशी मैंने भदौरिटाजी के सूने चेहरे पर देखी। रिटायरमेंट के बाद आपने क्या सोचा, मैंने भदौरियाजी से एक हारे हुए यक्ष की तरह प्रश्न किया। भदौरियाजी बोले- रिटायरमेंट के बाद आदमी सिर्फ सोचता ही है,कर तो कुछ भी नहीं पाता। मैं भी बस सोच-सोचकर बस सोच ही रहा हूं। सोचता हूं कि तार्थयात्रा पर निकल जाऊं। मैंने कहा येशमशानी विचार आपको कैसे आया। वे बोले सोचता हूं कि जब कुछ और नहीं कर पा रहा तो भगवान को ही आब्लाइज कर दूं। सीनियर सिटीजन को ट्रेन में थर्टी परसेंट का कंसेशन भी मिलता है। लगे हाथों उसका भी आनंद लिया जाए और भगवान की कृपा और ममता दीदी की मेहरबानी हो गई तो मरणोपरांत लखपति भी हो सकता हूं। रेल यात्रियों को मरणोपरांत लखपति बनाने का जन-कल्याणकारी कार्यक्रम यूं भी ममता दीदी पूरी निष्ठा से निभा रही हैं। हो सकता है कि अपना नंबर भी लग जाए। कैसा लगा आपको मेरा ये आइडिया। भदौरियाजी ने मुझे घूरते हुए पूछा।
मैंने कहा-सही सोच रहे हैं आप। जनरली लक्ष्मी उल्लुओं पर ही मेहरबान होती हैं। आप पर क्यों नहीं होंगी। उल्लुओं के प्रति लक्ष्मी की ममता जग जाहिर है। यह कहकर मैंने सावधानीपूर्वक अपने को समेटा। और मौकाए वारदात से फुर्ती से चल बसा।
आई-204,गोविंदपुरन,गाजियाबाद
मो.9810243966

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