Search This Blog

Friday, November 26, 2010

परंपरा को लाइटली लेना भी हमारी परंपरा है।


हास्य-व्यंग्य-
परंपरा की परंपरा
पंडित सुरेश नीरव
हमें गर्व है कि हम हिंदुस्तानी हैं। जहां आज भी परंपराओं को निभाने की परंपरा जिंदा है। भले ही आदमियत मर चुकी हो। पैदा होने से लेकर मरने तक यहां आदमी परंपराओं को निभाता है। सच तो यह है कि यहां आदमी परंपराओं को ही ओढ़ता है औऱ परंपराओं को ही बिछाता है। परंपराएं ही पीता है, परंपराएं ही खाता है। और खुशी की बात ये है कि इन परंपराओं को सबसे पहली गिफ्ट वह अपनी फेमिली से पाता है। भले ही सभ्यता के विकास के साथ-साथ देश में जंगल और परिवार के आकार दोनों ही छोटे हो गए हों मगर हमारी निष्ठाएं इनके आकार की चिंता किए बिना भी बदस्तूर बरकरार हैं। पहले सौ-सौ सदस्योंवाले परिवार और हजार-हजार पेड़वाले जंगल हुआ करते थे। अब दो-या-तीन पेड़ों के जंगल और दो या तीन बच्चोंवाले विराट परिवार ही देश की शोभा के लिए रह गए हैं। शरीफों के सर्किल में तो अब पत्नी ही फेमिली का पर्याय हो गई है। आजकल जो भी निमंत्रण आता है उसके एक कोने में विद फेमिली या सपरिवार शब्द का डेकोरेटिव जुमला जरूर लिखा रहता है। मंहगे कार्ड पर इस डेकोरेटिव शब्द के लिखने से उसकी सज-धज में थोड़ा और इजाफा हो जाता है।  वैसे इस जुमले को लिखनेवाले और पढ़नेवाले दोनों ही इसे उतनी ही गंभीरता से लेते हैं जितना कि सिगरेट पीनेवाला पेकेट पर सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है-जैसी फालतू की सूचनाओं को लेता है। ऐसे डेकोरेटिव जुमले लिखना हमारी परंपरा है। और परंपरा को परंपरा की तरह ही लाइटली लेना भी हमारी परंपरा है। कोई भी सीरियसली इसे दिल पर नहीं लेता है। पर क्या करें
परंपरा हमारा कभी पीछा ही नहीं छोड़ती हैं। अब देखिए न कि जैसे ही छात्रवर्ग को अक्षरज्ञान होता है, वह विद्यालय की प्रसाधन-भित्ति को अपनी अंतरंग,कोमल-मुलायम अभिव्यक्ति का कैनवस मानते हुए उसे प्रतिदिन अपनी मनपसंद आत्मीय आकृतियों और वाक्यसूत्रों से सजाकर एक अनकहा रचनात्मक सुख प्राप्त करता है। औपचारिकतौर पर ऐसा सुख उसे शादी के बाद ही मिलता है। मुझे लगता है कि स्कूली टायलेट की दीवारों को अक्षऱ-आकृति मंडित करने की परंपरा हमारे देश में तब से चली आ रही है जब शिक्षा का माध्यम पाली,प्राकृत और संस्कृत हुआ करते थे। और आज जबकि हिंदी को पछाड़कर अंग्रेजी मीडियम के कुकुरमुत्ती कान्वेंट पाठशालाएं देश में फल-फूल रही हैं तब भी तक्षशिला से कान्वेंट तक हमने अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के जन्मसिद्ध अधिकार को पूरी निष्ठा से बरकरार रखा है। क्योंकि यह हमारी गौरवशाली परंपरा है। हमारी राजनैतिक व्यवस्था भी हमेशा परंपरावादी ही रही है। और इस व्यवस्था की आलोचना करना भी हमारी सनातन परंपरा रही है,जो कल भी थी,आज भी है और भगवान ने चाहा तो कल भी जारी रहेगी।  एक उत्कृष्ट देश के निकृष्ट नेतृत्व से संचालित होने की परंपरा हमारी शाश्वत-सनातन परंपरा है। तब भी राजधानी को चौपट नगरी और राजा को चौपट राजा कहा जाता था, आज भी जनता सम्मान से राजधानी और सत्ताप्रमुख को इतिहास के इसी सम्माजनक अलंकरण से संबोधित करती है। यह हमारी परंपरा भी है। टका सेर भाजी,टकासेर खाजा की समाजवादी अर्थव्यवस्था और सामाजिक न्याय की परंपरा तब भी थी और आज भी है। राजा की धारावाहिक मूर्खताओं को हंसते हुए झेलने की परंपरा तब भी थी और आज भी है। हर प्राणी में ईश्वर का वास है,यह मानते हुए गये-गुजरे समय में भी आदमी और पशुओं में सदभाव की परंपरा के तहत गधों को पंजीरी खिलाई जाती थी। आज भी गधों का यह पुश्तैनी अधिकार पूरी निष्ठा के साथ आरक्षित है। रूपसियां तब भी मेकपधर्मी थीं,आज भी हैं। तब भी बूढ़े विश्वामित्र की तपस्या मेनका भंग कर देती थी आज भी राजभवनवाले तिवारीजी की राजनैतिक तपस्या तेजस्वी-ओजस्वी मेनका या मोनिका ही भंग करती है। स्त्री के सतप्रयासों द्वारा बूढ़ों का पथभ्रष्ट होना हमारी स्वर्णिम परंपरा है। हमारी परंपराएं शाश्वतहैं,सनातन हैं। अजर हैं,अमर हैं। ये कभी नष्ट नहीं होतीं। अब देखिए कि पति अपने को चाहे कितना भी बुद्धिजीवी माने पत्नी की निगाह में वह हमेशा से ही एक भौंदू प्राणी रहा है। कालिदास,तुलसीदास से लेकर देवदास तक- हाय पति तेरी एक ही कहानी। मैं भी अपने को एक बुद्दिजीवी मानता हूं और सौभाग्य से पत्नी की नज़र में अपुन भी कालिदास और तुलसीदास की टक्कर के ही बुद्धिजीवी हैं। आप भी यकीनन इन्हीं के टक्कर के होंगे। हर पति होता ही है। ये बात दीगर है कि पत्नी की झिड़कियां खाकर आजन्म हंसते रहने को अभिषप्त,मायावी तंत्र से त्रस्त बेचारे पतियों को इसका आत्मबोध जीवनपर्यंत हो ही नहीं पाता है। भौंदू के साथ-साथ पति को पत्नियों द्वारा परमेश्वर मानने की परंपरा बहुत प्राचीन है। यह है समन्वय की दृष्टि। पत्नियों की दृष्टि में दोनों ही बराबर हैं। कोई ऊंच-नीच नहीं। मगर अपमान की कीचड़ में बिलबिलाते हुए पतियों को, पत्नियों के इस धारावाहिक परोपकार का पता ही नहीं चलता है कि वे किस तरह चुपके-चुपके ज़िंदगी के न जाने कितने एपीसोडो में परमेश्वर की तरह पूजे जा रहे हैं। सदियों-सदियों के लाखों-लाखों करवाचौथ इस बात के सबूत है कि पति परमेश्वर के रूप में पत्नियों द्वारा पूजे जाते चले आ रहे हैं। आदमी पुजता  रहे और उसे पता तक न चले, हमारी यही परंपरा है। जो इत्तफाक से पूरी दुनिया में और कहीं नहीं है। एनआरआई प्रजातियों के कारण पतिपरमेश्वर के पूजने की छुटपुट वारदातों के समाचार विदेशों से भी आए दिन अब हमें मिलने लगे हैं। स्टेंडर्ड भारतीय पतियों को प्रकृति से यह अधिकार प्राप्त है कि वे कठोर निवेदन के साथ पत्नियों का मधुर-मधुर विरोध करते हुए आजन्म उन्हें अपनी अर्धांगिनी कहें,भले ही वह सौभाग्यवती आकार में पति से दोगुनी ही क्यों न हो। भारी पत्नी-भारी भाग्य। यूं भी पत्नी तो हमेशा ही सौभाग्यवती ही होती है। और पति का भाग्य हमेशा भगवान भरोसे होता है। इस पराधीनता को जीना ही पति नामक निरीह प्राणी की नियति है। सिद्धांततः कहने को भले ही भाग्य को भगवान भरोसे कहा जाता है,मगर जमीनी हकीकत यह है कि पति का भाग्य हमेशा पत्नी के पल्लू की गांठ में बंधा होता है। पति परमेश्वर। यानी बीवी के पल्लू में भगवान...। भगवान भी अपनी दिव्य लीला में मनुष्य-जैसा ही आचरण करते हैं। पत्नी का आदेश न मानने की जुर्रत भगवान में भी नहीं होती। एक बार जंगल में सीताजी ने पति राम को आदेश दिया कि मेरे लिए स्वर्ण मृग मारकर लाओ। एक औसत भारतीय पति  की तरह बिना चूं-चपड़ किए बेचारे हिरण मारने चल दिए। जाते कैसे नहीं। डैडी दशरथ भी तो अपनी धर्म वाइफ का हर आदेश मानते थे, परिणामस्वरूप वनवास का दिलचस्प एपीसोड प्रकाश में आया। फिर चिंरजीव रामजी कैसे सौभाग्यवती सीता की आज्ञा के उल्लंघन का जघन्य पाप कर सकते थे। मान मारकर ही सही घरवाली के कहने पर चल दिए बेचारे हिरण मारने। ऐसे ही एक बार सिनेमावाले सलमानखान को भी अपनी बाहरवाली के कहने पर काला हिरण मारना पड़ा था। पर्दे पर बार-बार शर्ट उतारकर दिखाने से कोई बहादुर थोड़े ही हो जाता है। अपनी फिएंसी की बात नहीं मानता तो वह सरेआम सलमान के कपड़े उतार देती। गए वो भी बेचारे हिऱण मारने। राम हिरणात्मक-क्रीड़ा करके वापस लौटे तो इसी बीच सीताहरण की वारदात हो गई। उधर सलमान जब काला हिरण मारकर वापस लौटा तो हिरणवध के बाद सरकार ने उसका शीलहरण कर उसे सरकारी अशोकवाटिका में डाल दिया। कुल मिलाकर बड़े-बड़े लफड़े का कारण प्राचीन काल में भी हिरण था और अर्वाचीन काल में भी हिरण ही रहा। हिरण हमारी परंपरा है। जो इस परंपरा को तोड़ता है उसका अपने आप नशा हिरण हो जाता है। पत्नी या प्रेमिका का आदेशपालन हमारी सेकुलर परंपरा है। परंपरा भी और सेकुलर भी। इसे कहते हैं सोने पे सोहागा। नई पीढी के मद्देनजर यहां यह बताना आवश्यक रूप से जरूरी है कि श्रीराम हिंदू समुदाय से थे और सलमान मुसलमान समुदाय के हैं। और ऐसी मान्ता है कि दोनों हिरण  (सलमानवाला भी और रामवाला भी) धर्मनिरपेक्ष थे। इतिहास गवाह है कि हिंदुस्तानी प्रेमिकाएं और पत्नियां भी हिरण की तरह पैदाइशी सेकुलर होती हैं.। सेकुलर बांकी हिरणियां। यही हमारी परंपरा है। अकबर की जोधाबाई, फिरोजखान की इंदिराजी और राजीव की सोनियाजी से लेकर शाहरुख खान की गौरीजी तक। इन सबके बहुमूल्य सहयोग से हमारी गौरवशाली परंपरा पूरे गौरव के साथ आज भी बरकरार है। गौरवशाली परंपरा को बरकरार रखना भी क्या कम गौरव की बात है। हम कित्ते भी फटेहाल क्यों न हों,हर हाल में गौरवशाली रहना, हमारी परंपरा है। कल सुबह-सुबह एक गौरवशाली भिखारी ने मेरे दरवाजे की घंटी बजा दी। हमने दरवाजा खोला। भिखारी के मुंह से लेटेस्ट डिजायन की दुआओं का ऐसा धुंआ निकल रहा था कि मेरा मुंह और आंखें अपने आप बंद हो गईं। और चेहरा खेचरी मुद्रा में आ गया। भिखारी को लगा कि मेरी आंखे श्रृद्धा के कारण बंद हो गई हैं। इस गलतफहमी से उसे मुझे आशीर्वाद देने की हिम्मत पड़ गई। कहते हैं न कि सावधानी हटी कि दुर्घटना घटी। इससे पहले कि मैं अपनी आंखें खोल पाता उसने दुआओं के डंडे से मेरी ऐसी ताबड़-तोड़ धुनाई कर दी कि मैं अपनी खूनखच्चरमयी भावनाओं और विवश विनम्रताओं के साथ,उसके चरणों में मूर्छित होकर आपाद मस्तक गिर पड़ा। उस भिखारी ने लंकेश रावण की ठसक और शोले के गब्बर की धमक के धमाके से सजा-संवरा भीषण अट्टहास किया और फिर अपने पैरों से मेरे अर्ध-पार्थिव शरीर के मलबे को हटाते हुए गरजा- हे आर्यपुत्र..साधु-संतों का सम्मान हमारी परंपरा है। और बेटा तू तो विकट संस्कारी है। तू मेरे पैरों में इतनी निष्टा से कदमलुंठित हुआ कि धोखे से भी यदि निष्टा की मात्रा थोड़ी और बढ़ जाती तो हमें अपने पैरों से तुझे उठवाने के लिए क्रेन मंगवानी पड़ती। बड़ा,हैवी समर्पण है,तेरा। उसके चेहरे पर शाइनिंग इंडिया के पोस्टर की तरह एक अर्थहीन चमक थी। वह बोला- अब तू जल्दी से हैवीवेट दक्षिणा निकाल। बच्चा 500रुपए से कम दश्रिणा हम लेते नहीं हैं। हमने कहा- आप भिखारी हैं,अधिकारी नहीं। इसलिए गिड़गिड़ाइए..हमें मत हड़काइए।. मुझे मालुम नहीं था कि साधु-संतों के सम्मान करने की एक बचकानी हरकत का इतना घातक परिणाम निकलेगा। चलो गलती करना आदमी की फितरत होती है मगर जो गलती को सुधार ले वही विद्वान होता है। दुर्घटनावश अब मैं भी विद्वान हो गया हूं। और विद्वानों की सनातन परंपरा सिर्फ लेना होती है। और हमने विनम्रतापूर्वक आपके आशीर्वाद ले लिए हैं। इसलिए अब आप अपने आगे के एसाइनमेंट के लिए तुरंत सिधार जाएं। मेरा भेजा नहीं खाएं। मेरा आपसे यही कर्कश निवेदन है।
  भिखारी फूट-फूटकर हंसा और बोला- अरे नास्तिक जो मंदिर में जाकर भगवान के आगे घंटे नहीं बजाता है,ईश्वर उसकी घंटी जरूर बजाता है। भगवान तेरी घंटी जल्दी बचाए...अलखनिरंजन। दक्षिणा न मिलने पर वह मुझे कोसता हुआ तत्काल आगे गुजर गया। मैं सोच रहा हूं कि दक्षिणा न मिलने पर दुआ देनेवाले मुंह में बददुआओं का कैसैट कौन रख जाता है।  यह तकनीकि परिवर्तन क्या फौरी प्रतिक्रिया है या ये भी हमारी परंपरा है। तभी आत्मा का साइलेंसर मुखर होता है- यकीनन ये परंपरा ही होगी। तकनीकि तो कल की पैदाइश है। और परंपरा शाश्वत है,सनातन है। नूतन है पुरातन है। भीख मांगना भी हमारी राष्ट्रीय परंपरा है। वह भिखारी भीख मांगकर राष्ट्र की  परंपरा की ही सेवा कर रहा था। इसलिए उसे बदतमीजी करने का पूरा हक है। यही हमारी परंपरा है। और शरीफ नागरिक तो देशभक्तों की कैसी भी बातों का मरणोपरांत भी बुरा नहीं मानते। यह भी हमारी परंपरा है। परंपरा की इस गौरवशाली परंपरा को मेरे पारंपरिक प्रणाम..
आई-204,गोविंदपुरम,गाजियाबाद
मो.9810243966



No comments: