आदरणीय नीरवजी,
जयलोकमंगल...।
शोकसभा जैसे मातमी संदर्भ को आपने व्यंग्य के सांचे में ढालकर कमाल कर दिया है। सच आज शोकसभा की एक दिखावे का ईवेंट बन गई है।जहां लोग जनसंपर्क का काम बड़ी निपुणता से साधते हैं और मीडिया हड़पू लोग अपने फोटो छपवाने की जुगत भिड़ाते रहते हैं। कई लोग तो साहित्यकार ही इसीलिए हैं,क्योंकि वे शोकसभा के रेगुलर आयटम होते हैं। आपने पेशेवर शोकसभाइयों को कूब लपेटा है-अरे कवरेज की लालसा में रोज़ कितने लोग मर जाते हैं। मगर मरकर भी बेचारों की कवरेज नहीं होती। साले भ्रम में जी रहे हैं। अरे जब कफन फ्री नहीं मिलता तो कवरेज कैसे फोकट में हो जाएगी। अब करा लें कवरेज। लड़कों को जाकर हड़काया-भड़काया- कि बिगाड़ दिया ना खेल। टाइम निकला जा रहा है,और कोई भी चैनलवाला नहीं आया। आप लोगों को कम-से-कम ऐसे मौके पर तो कंजूसी नहीं करनी चाहिए थी। अरे यही तो मौके होते हैं कवरेज हड़पने के। पिताजी जिंदगीभर कवरेज के लिए तरसते रहे। विरोधी हर जगह टंगड़ी मारते रहे। आज हाथ आया मौका फालतू में गंवा दिया,आप लोगों ने। अभी भी कहें तो डील करूं। श्मशानघाट पर कुछ लोगों के बाइट्स तो आने ही चाहिए। इससे शोकसभा में शो आ जाता है।
बधाई..
ओमप्रकाश चांडाल
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