Search This Blog

Showing posts with label : हास्य-व्यंगय. Show all posts
Showing posts with label : हास्य-व्यंगय. Show all posts

Thursday, June 9, 2011

भक्तों से खतरा भारी


हास्य-व्यंग्य-
 बाबा की जान को खतरा है
पंडित सुरेश नीरव
जब से सुना है कि बाबा की जान को खतरा है अपनी तो जान ही सांसत में है। वैसे तो मोर्चे पर तैनात सैनिक और अनशन पर डटे नेता की जान हमेशा खतरे में ही रहती है। पर यहां तो मामला बाबा का है। हमने अपने एक मित्र को सूचना दी कि अपने भ्रष्टाटाचार भगाऊ बाबा की जान खतरे में है तो वह शैतान बड़ी ज़ोर से हंसा। फिर बोला- उमराव जान, गौहर जान-जैसी जानें नवाबों के तो हुआ करती थीं अब बाबाओं के भी होने लगीं। हमने तुनकते हुए कहा- तुम्हें तो हर वक्त दिल्लगी ही सूझती रहती है। कभी सीरियस भी रहा करो। बाबा भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। वे अब राष्ट्र की धरोहर बन चुके हैं। और तुम हो कि दिग्गी राजा की तरह फिकरेबाजी पर उतारू हो। अरे उनकी हिफाजत हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। वो बोला लेकिन बाबा ने तो दो दिन पहले ही कहा था कि उन्हें आतंकवादियों से कोई खतरा नहीं है। फिर ये खतरा किससे हैं। लगता है बाबा को ये खतरा अपने भक्तों से है। भक्तों से तो भगवान को भी सबसे ज्यादा खतरा रहता है। अच्छे खासे अपने भगवान रामलला विद फेमली अयोध्या के छोटे से मंदिर में रह रहे थे। भक्तों की कृपा से अब पुलिसिया बीड़ी के ठोंटों के बीच खुले मैदान में धूप-बीरिश झेल रहे हैं। भक्तों से जब रामजी नहीं बचे तो बाबा रामदेव की बेचारे की क्या बिसात। अपने बापू गांधीजी की भी जितनी दुर्दशा उनके भक्तों ने की उतनी तो जालिम अंग्रेज भी नहीं कर पाए थे। भक्तों का बड़ा झंझट रहता है। जिसके जितने भक्त उसकी जान को उतना ही बड़ा खतरा। ओसामा के सबसे ज्यादा भक्त पाकिस्तान में थे। पता ही नहीं चला किस भक्त ने उन्हें निबटवा दिया। मजाल है भारत में कोई ओसामाजी को हाथ भी लगा पाता। ओसामाजी की तो बात छोड़िए अफजाल गुरू और कसाव भाई तक को कोई छू नहीं सकता। क्योंकि यहां उनके भक्त नहीं है।  हमारी तो ऐसी ही मान्यता है। इसीलिए वे यहां आजन्म पूर्ण सुरक्षित हैं। बाबा को ये बात अब खूब समझ में आ गई है। इसलिए उन्होंने भी अपने भक्तों से सुरक्षित दूरी बना ली है। अब भक्तों को बाबा की जगह कमांडो के पैर छूकर ही पुण्य लाभ लेना होगा। बाबा खुद भी योगासन अब कमांडो के घेरे में ही किया करेंगे। मामला जान की सुरक्षा का जो है। बाबा जिस भक्तिमार्ग पर चलना चाहते हैं वहां भक्तों की भीड़ ने ऐसा ट्रफिक जाम कर दिया है कि भक्तिमार्ग पर चलने में बाबा को  बड़ी परेशानी हो रही है। भक्तों की भीड़ और भीड़ की भगदड़ में कुचल जाने का अंदेशा हमेशा बना रहता है। इसलिए ही तो बाबा सियासत की सर्विसलेन से आगे बढ़ना चाह रहे हैं। क्या करें प्रकार-प्रकार के खतरे हैं बाबा की जान को। पान-सुपारी से पूजन करते-करते पता नहीं कौन सुपारी उठा ले। बाबा को यकीनन भक्तों से खतरा है।  बाबा की जान के बारे में सोच-सोचकर जान-बूझकर लापरवाह नहीं रहा जा सकता है। सरकार अलग बाबा से नाराज है। अच्छा खासा कारोबार कर रहे थे चटनी-चूरन का। पता नहीं क्या पड़ी थी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने की। इसी को कहते हैं विनाश काले विपरीत बुद्धि। चले आए हरिद्वार से दिल्ली भ्रष्टाचार हटाने। मानो भ्रष्टाचार की खदानें दिल्ली में ही खुदी हों। भ्रष्टाचार उत्तराखंड में ही मिल जाता। निशंकजी से कह देते कि भैया भ्रष्टाचार हटाने की खुजली उठी है। हे.. भक्त थोड़ा भ्रष्टाचार इधऱ भी भिजवाओ ताकि हम भ्रष्टाचार हटा सकें। निशंकजी को काहे की कमी। आखिर मुख्यमंत्री हैं। बाबा को जरूरतभर का भ्रष्टाचार तो एकमुश्त वो भिजवा ही देते। और भावुक हो जाते तो किश्त भी बांध सकते थे। मगर नहीं साहब चले आए दिल्ली। जले पर नमक छिड़कने। कलमाड़ी,राजा, कोनीमझी पहले से ही तिहाड़ में हैं। गरीबी में आटा गीला। अन्ना अलग से ही दिल्ली में जंतर-मंतर मार चुके थे। सरकार अपने में परेशान। उसमें इन्हें भ्रष्टाचार हटाने की सूझ गई। भक्तों के भड़कावे में चले आए दिल्ली। मैं इसलिए बाबा को आगाह कर रहा हूं कि भक्तों से ज़रा बच के रहें। अनशन पर हैं। रोटी की याद करके मन ललचाता तो होगा। ऐसे कमजोर क्षणों में कहीं कोई भक्त चुपके से रोटी का कालाधन ले आया तो बाबा की तपस्या मेनकात्रस्त विश्वामित्र की तरह तड़ से भंग हो जाएगी। और अगर उस खाने में कुछ ऐसा-वैसा हुआ तो जान पर बन सकती है। इसलिए बाबा मन पक्का करके प्लीज.. उसे आप रिफ्यूज कर देना। मेरे थोड़े लिखे को अधिक समझना।  मैं आपका भक्त नहीं हूं इसलिए कह रहा हूं- कि बाबा भक्तों से ज़रा बचके। बाकी क्या लिखूं आप खुद समझदार हैं। बालकिशन भैया को हमारी जै रामजी की कहना। आपके साथ भ्रष्टाचार हटाने कित्ते उत्साह से निकले थे। खुद के मम्मी-डैडी बेचारे नेपाली निकल आए। अब इसमें उनका क्या कसूर। और हां...चलते-चलते आपके लिए दो लाइनें-
लोकतंत्र की देखिए महिमा अपरंपार
नेता को जूता मिला बाबा को सलवार.
हीं-हीं-हीं। प्रभु किकना कृपालु है। बाबा... मेरा ये पत्र परम प्राइवेटरूप से गोपनीय है। अकेले में ही पढ़ना। इसे सिब्बल साहब की तरह आप सबके सामने मत बांचना। मैं स्वभाव से वैसे ही बहुत शर्मीला हूं। आपका एक दुर्लभ भूमिगत शुभचिंतक
भोजन भट्ट भारती,
मकान नंबर-420,चोरगली,
सांप्रदायिक नगर,भारत

Thursday, March 31, 2011

अप्रैल फूल की पौराणिक धरोहर


हास्य-व्यंग्य-
अप्रैल फूल की पौराणिक धरोहर 
और ग्लोबल कॉपीराइट
पंडित सुरेश नीरव
अप्रैल फूल नामक त्योहार दुनिया का एक मात्र धर्मनिरपेक्ष,वर्गनिरपेक्ष,क्षेत्रनिरपेक्ष और अघोषित छुट्टीवाला एक ऐसा ग्लोबल त्योहार है,जिस दिन नुकसानरहित मज़ाक के जरिए एक-दूसरे को सार्वजनिकरूप से मूर्ख बनाने का संवैधानिक अधिकार हर आदमी को  फोकट में मिल जाता है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इस दिन के अलावा आदमी आदमी को मूर्ख बनाता ही नहीं है। मगर इस दिन जिस भक्ति भाव से आदमी वॉलेंटियरली मूर्ख बनने को  उत्साहपूर्वक राजी हो जाता है,उसके इसी मूढ़ उल्लास ने अप्रैल फूल के पावन पर्व को दुनिया का नंबर एक त्योहार बना दिया है। आखिर आदमी इस दिन मूर्ख बनने को इतना उत्साहित रहता क्यों है,इसका जवाब मेरे अलावा दुनिया के किसी समझदार आदमी के पास नहीं है। विश्वकल्याण की उत्सवधर्मी भावुकता से ओतप्रोत होकर जिसे मैं जनहित में आज सार्वजनिक कर रहा हूं। शर्त ये है कि इसे आप अप्रैल फूल का मज़ाक कतई न समझें। तो ध्यान से सनिए- यह त्योहार उस महान शैतान के प्रति आदमजात के अखंड एहसानों के इजहार का त्योहार है,जिस दिन उसने स्वर्ग के इकलौते आदमी और औरत को वर्जित सेव खिलानें का धार्मिक कार्य किया था। वह एक अप्रैल का ऐतिहासिक दिन था। जब सेव का मज़ा चखने के जुर्म में इस जोड़े को तड़ीपार के गैरवपूर्ण अपमान से सम्मानित करके ईश्वर ने दुनिया में धकेल दिया था। न शैतान सेव खिलाता न दुनिया बसती। मनुष्य जाति को बेवकूफ बनाने के धारावाहिक सीरियल का ये सबसे पहला एपीसोड था। आज भी धारावाहिकों के जरिए आदमी को बेवकूफ बनाने का ललित लाघव पूरी शान से जारी है। सारी दुनिया उस शैतान की एहसानमंद है जिसके एक ज़रा से मजाक ने सदियों से वीरान पड़ी दुनिया बसा दी। ज़रा सोचिए अगर ये दुनिया नहीं बसती तो आजके प्रॉपर्टी डीलरों की मौलिक प्रजाति तो अप्रकाशित ही रह जाती। इसीलिए शैतान और शैतानी को जितने पवित्र मन से यह लोग सम्मानित करते हैं,दुनिया में और कोई नहीं करता। ये दुनिया एक शैतान की शैतानी का दिलचस्प कारनामा है। जहां चोर है,सिपाही है। मुहब्बत है,लड़ाई है। बजट है,मंहगाई है। इश्क है,रुसवाई है।नेता है,झंडे हैं। मंदिर हैं,पंडे हैं। तिजोरी है,माल है। ये सब अप्रैल फूल का कमाल है। दुनिया वो भी इतनी हसीन और नमकीन कि देवता भी स्वर्ग से एल.टी.ए.लेकर धरती पर पिकनिक मनाने की जुगत भिड़ाते हैं। और अपनी लीलाओं से मानवों को अप्रैल फूल बनाते हैं,कभी-कभी खु़द भी बन जाते हैं। विद्वानों का तो यहां तक मानना है कि देवता इस धरती पर आते ही लोगों को अप्रैल फूल बनाने के लिए हैं,क्योंकि स्वर्ग में इसका दस्तूर है ही नहीं। यह तो पृथ्वीवासियों की ही सांस्कृतिक लग्जरी है। जो शैतान के सेव की सेवा से आदम जात को हासिल हुई है। देवता इसे मनाने के लिए अलग-अलग डिजायन के बहुरूपिया रूप धरते हैं। वामन का रूप धर के तीन पगों में तीन लोकों को नापकर राजा बली को बली का बकरा मिस्टर विष्णु ने पहली अप्रैल को ही बनाया था। अप्रैल फूल बनाने का चस्का फिर तो इन महाशयजी को ऐसा लगा कि अगले साल मोहनीरूप धर के भस्मासुर नाम के किसी शरीफ माफिया का बैंड बजा आए। तो किसी साल शेर और आदमी का टू-इन-वन मेकअप करके हरिण्यकश्यपु नामक अभूतपूर्व डॉन को भूतपूर्व बना आए। अप्रैल फूल की विष्णुजी की इस सनसनाती मस्ती को देखकर अपने जी स्पेक्ट्रमवाले राजा नहीं,सचमुच के स्वर्ग के, सच्चीमुच्ची के राजा इंद्र का भी मन ललचा उठा। इंद्रासन छोड़कर,सारे बंधन तोड़कर पहुंच गए मुर्गा बनकर गौतम ऋषि के आश्रम पर। ऐसी कुंकड़ूं-कूं करी कि भरी रात में ही अपने अंडर गारमेंट्स लिए बाबा गौतम पहुंच गए नदी पर नहाने। वहां आदमी-ना-आदमी की जात। समझ गए कि किसी ने अप्रैल फूल बना दिया है। मुंह फुलाए घर पहुंचे तो अपने डमी-डुप्लीकेट को बेडरूम से खिसकते पाया। अप्रैल फूल बनने की खुंदक शाप देकर वाइफ पर उतारी। शिला बन गई बेचारी। जब दैत्यों को भनक लगी कि स्वर्ग से आकर देवता अप्रैल फूल- अप्रैल फूल खेल रहे हैं तो उन्होंने भी देवताओं को अप्रैल फूल बनाने की ठान ली। सोने का हिरण बनकर,अपने पीछे दौड़ाकर जहां मारीचि ने श्रीयुत रामचंद्र रघुवंशीजी को अप्रैल फूल बना दिया,वहीं रावण ने साधु का वेश धारण कर सीताजी को लक्ष्मण-रेखा लंघवाकर हस्बैंड-वाइफ दोनों को अप्रैल फूल बना डाला। ये त्योहार है ही ऐसा। देवता और दैत्य सब एक-दूसरे से मज़ाक कर लेते हैं। फर्श ऐसा लगे जैसे पानी का सरोवर। महाभारत काल में ऐसे ही स्पेशल डिजायन के महल में दुर्योधन को बुलाकर द्रौपदी ने उसे अप्रैल फूल बनाया था। मगर दुर्योधन हाई-ब्ल्ड-प्रेशर का मरीज था।मज़ाक में भी खुंदक खा गया। और उसने अगले साल चीर हरण के सांस्कृतिक कार्यक्रम के जरिए द्रौपदी को अप्रैल फूल बनाने की रोमांचक प्रतिज्ञा कर डाली। मगर द्रौपदी के बाल सखा मथुरावासी श्रीकृष्ण यादवजी को भनक लग गई। ऐन टाइम पर साड़ी का ओवर टाइम उत्पादन कर के उन्होंने कौरवों की पूरी फेमिली को ही अप्रैल फूल बना दिया। मज़ाक को मजाक की तरह ही लेना चाहिए। अब हमारे नेताओं को ही लीजिए। पूरे पांच साल तक जनता को अप्रैल फूल बनाते हैं। कभी मूड में आकर कहते हैं कि हम भ्रष्टाचार मिटा देंगे। जनता तारीफ करती है। कि नेताजी का क्या गजब का सेंस ऑफ ह्यूमर है। फिर नेताजी भ्रष्टाचार,घोटाले में फंस जाते हैं। जनता हंसती है- अब नेताजी कुछ दिन सीबीआई-सीबीआई खेलेंगे। हाईकमान ने तो क्लीनचिट देने के बाद ही घोटाला करवाया है,नेताजी से। सब अप्रैल फूल का मामला है। इसका अंदाज ही निराला है। पूरा जी स्पैक्ट्रमवाला है। कसम,कॉमनवेल्थ गेम की। हम सब भारतवासी खेल के नाम पर भी खेल कर जाने वाले खिलाड़ियों के खेल को भी खेल भावना से ही लेते हैं। अप्रैल फूल त्योहार की अपनी अलग कूटभाषा है। जिसने बना दिया वो सिकंदर जो बन गया वो तमाशा है। अप्रैल फूल,मूर्ख बनाने का मुबारक जलसा, जो भारत से ही दुनिया के दूसरे देशों में एक्सपोर्ट हुआ है। हमारे आगे टिकने की किसमें दम है। न्यूजीलैंड,इंग्लैंड,आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका में दोपहर के 12 बजे तक ही अप्रैल फूल का मजाक चलता है। फ्रांस,अमेरिका,आयरलैंड,इटली,दक्षिण कोरिया.जापान,रूस,कनाडा और जर्मनी में यह पूरे दिन चलता है। मगर हमारे देश में यह मज़ाक जीवन पर्यंत चलता है। अप्रैल फूल  के मजाक को याद करके हम भारतवासी मरणोपरांत भी हंसते रहते हैं। और जबतक ज़िंदा रहते हैं नमक और मिर्च को बांहों में-बांहें डाले अपने ही जख्म के रेंप पर डांस करता देखकर बिलबिलाकर उनके साथ भरतनाट्यम करते हुए अप्रैल फूल जैसे प्राचीन पर्व की आन-बान-शान को हम ही बरकरार रखते हैं। अप्रैल फूल त्योहार का कच्चा माल हम भारतीय ही हैं। अप्रैल फूल  मनाने का ग्लोबल कॉपीराइट भारतीयों के ही पास है।क्योंकि सबसे पहले अप्रैल फूल बननेवाले इस दुनिया में ही नहीं जन्नत में भी हम भारतीय ही थे। शैतान के सेव के सनातन सेवक। वसुधैव कुटुंबकम..सारी दुनिया हमारी ही फेमली है। और अप्रैल फूल हमारा ही फेमिली फेस्टिवल है।
आई-204,गोविंदपुरम,ग़ाज़ियाबाद-201001
मो.9810243966

Wednesday, December 22, 2010

रेडियोएक्टिव साहित्यकार सिर्फ रेडियो में नोकरी लगने के बाद ही सक्रिय होता है


हास्य-व्यंग्य-
रेडियोएक्टिव साहित्यकार
पंडित सुरेश नीरव
अपने लपकू चंपक जुगाड़ीजी आजकल रेडियो एक्टिव साहित्यकार हो गए हैं। यूरेनियम-जैसे रेडियो एक्टिव पदार्थ में और रेडियोएक्टिव साहित्यकार में सिर्फ इतना फ़र्क होता है कि रेडियोएक्टिव साहित्यकार हमेशा अपनी दम पर सक्रिय रहता है वहीं रेडियोएक्टिव साहित्यकार सिर्फ रेडियो में नोकरी लगने के बाद ही सक्रिय होता है। और जैसे ही रेडियो की नौकरी से हटता है या समारोहपूर्वक हटाया जाता है,वह निर्जीव हो जाता है। गोबर से निकले गुबरैले की तरह। कुछ-कुछ इसी नस्ल के जीव हैं महोदय- लपकू चंपक जुगाड़ीजी। आजकल अपनी लगन में मगन लपकू चंपक जुगाड़ीजी ग्रीक कथाओं के एटलस की ज़िंदगी जी रहे हैं। बिलकुल एटलस की तरह। जैसे उसके कंधे पर पृथ्वी टिकी है लपकू चंपक जुगाड़ीजी के कंधों पर, उसी तर्ज पर हिंदी का संसार धरा हुआ है। साहित्य के भार से चरमराते और ऐसी विषम परिस्थिति में भी मुस्कुराते लपकू चंपक जुगाड़ीजी हिंदी के विकास के लिए पूरे बलिदानी भाव से हथेली पर प्राण लिए सपरिवार पिकनिक मनाते घूम रहे हैं। जब से रेडियो की नौकरी में आए हैं तब से लपकू चंपक जुगाड़ीजी पूरी तरह से कविया गए हैं। उन्हें कविता करने से रोक भी कौन सकता है। अब कविता करना लपकू चंपक जुगाड़ीजी का कुर्सी-सिद्ध अधिकार है। एक तो कवि ऊपर से रेडियो की नौकरी। यानी कि करेला और नीम चढ़ा। मजाल है कहीं,कोई कवि सम्मेलन लपकू चंपक जुगाड़ीजी के बुलाए बिना हो जाए। गली छाप दोयम दर्जे के कवियों के अखिलभारतीय कप्तान की हैसियत हथियाकर बैठे हैं- लपकू चंपक जुगाड़ीजी। हर ऐरे-गैरे कवि को अखिल भारतीय बनाने का ठेका है, लपकू चंपक जुगाड़ीजी के पास। जिन्हें अखिल भारतीय बनना होता है,वह लपकू चंपक जुगाड़ीजी को ऐसे घेरे रहते हैं-जैसे मरे हुए जानवर को कुत्ते और गिद्ध घेरे रहते हैं। लपकू चंपक जुगाड़ीजी हिंदी के विकास के लिए बहुत गंभीर हैं। इसलिए पूरी सतर्कता के साथ अपने कार्यक्रमों में सिर्फ उन्हीं को बुलाते हैं,जो अपने-अपने दफ्तर में हिंदी-हिंदी का खेल खेलते रहते हैं। हिंदी के इन सरकारी खिलाड़ियों में लपकू चंपक जुगाड़ीजी इतनी रुचि यूंहीं भावुकतावश नहीं दिखाते हैं। असल में हिंदी पखवाड़े में यही लोग अपने दफ्तर में लपकू चंपक जुगाड़ीजीजैसे घोर विद्वानों को बुलाकर हिंदी का भविष्य उज्ज्वल करने में कई सालों से बुरी तरह से जुटे हुए हैं। हिंदी का भविष्य इनसे उज्ज्वल होगा या नहीं इस पर विश्वासपूर्पक कुछ कहना एक कट्टरपंथी फतवा ही होगा, हां पूरी हुंकार के साथ ये जरूर कहा जा सकता है कि हिंदी के नाम पर लपकू चंपक जुगाड़ीजी-जैसे चिरकुटों की दुकान जरूर इन प्राणियों की बदौलत चल जाती है। लपकू चंपक जुगाड़ीजी खुद और खुद की मंडली की बदौलत ही साहित्यकार हैं। लपकू चंपक जुगाड़ीजी रेडियो एक्टिव साहित्यकार हैं। इसलिए रेडियों की एवज में सरकारी दफ्तरों के आयोजन वे पूरी आयोजनखोर निष्ठा से हथियाते हैं। जो लोग इन्हें बुलाते हैं बदले में वे भी रेडियो पर जाकर गा-बजा आते हैं। ये है रेडियो के जरिए प्रतिभाओं का सांस्कृतिक आदान-प्रदान। तू मुझे बुला मैं तुझे बुलाऊं के इस सदभावनापूर्ण वातावरण में हिंदी खूब फल-फूल भी रही है। रेडियो का आविष्कार हुआ ही इस काम के लिए था। मार्कोनी को मालुम था कि बिना रेडियो के हिंदी का विकास हो ही नहीं पाएगा। हिंदी पर बहुत बड़ा उपकार है मार्कोनी का। और हमारे लपकू चंपक जुगाड़ीजी ने तो इस रेडियो को मिली-जुली बदनीयती का एक पवित्र मंदिर बना दिया है। जहां जुगाड़ चालीसा के भजन और तिकड़मपचीसी के अखंड कीर्तन से लपकू चंपक जुगाड़ीजी के भक्तों की मनोकामनाएं शर्तिया पूरी होती हैं। रेडियो की बदौलत लपकू चंपक जुगाड़ीजी की साहित्य में जूती और तूती दोनों बोल रही हैं। जूती-तूती की कैसी दुर्लभ जुगलबंदी साध ली है,हमारे लपकू चंपक जुगाड़ीजी ने। वैसे कविजी गांधीवाद की हिंसक मुद्रा का ऐसा दुर्लभ  एंटीक आयटम हैं कि आंख मारने को हिंसा और किसी के पैसा मारने को ये नितांत अहिंसक कर्म मानते हैं। साहित्यिक धमक ऐसी कि भक्तिकाल में अगर टहलने चले जाएं तो वहीं वीरगाथाकाल की ऋतु आ जाए। लपकू चंपक जुगाड़ीजी का शिल्प है ही ऐसा रहस्यवादी। आज तक साहित्य के विशेषज्ञ यह तय नहीं कर पाए कि लपकू चंपक जुगाड़ीजी हैं किस रस के कवि। कुछ लोग तो उन्हें इस जटिलता के कारण कवि ही नहीं मानते। उनका कहना है कि सर्दी में ठंडे पानी से नहाते समय यदि कोई राम-राम कहता है तो वह भक्त प्रहलाद थोड़े ही हो जाता है। और रामलीला में राम का पार्ट अदा करनेवाला कोई सच्ची-मुच्ची में राम थोड़े ही हो जाता है। ऐसे ही रेडियो में नौकरी करते हुए अगर कोई कविता-मविता करने लगे तो सच्ची का कवि थोड़े ही हो जाता है। उनका दावा है कि रेडियो में रहते हुए लपकू चंपक जुगाड़ीजी कितनी भी कविताएं भांज लें,रिटायरमेंट के बाद लपकू चंपक जुगाड़ीजी  की जिंदगी की पोटली में से चंद तुकबंदियों के चीथड़ों के अलावा और कुछ बरामद नहीं होनेवाला। मूढ़ हैं सब। प्रतिभा को अंडर एस्टीमेट करते हैं। आज की डेट में लपकू चंपक जुगाड़ीजी रेडियो की तलवार से कलम की लड़ाई और चौंचक कमाई में पूरी तरह से रत हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी लपकू चंपक जुगाड़ीजी बहुमुखी हों या न हों पर दसमुखी जरूर हैं। रेडियो की स्वर्ण लंका के इकलौते लंकेश। स्त्रीविमर्श के लिए जिनकी एक अलग से मोबाइल अशोक वाटिका भी है। बड़ा आतंक है- लपकू चंपक जुगाड़ीजी का। लतीफों का गंभीर दीवान और ग़ज़लों के चुलबुले रैपर में लिपटा एक जानलेवा आयटम हिंदी साहित्य को रेडियो के सौजन्य से ही सहज उपलब्ध हुआ है। जो किसी को भी असहज करने के लिए काफी है। हमें भरोसा है,पूरा भरोसा है कि अपनी दुर्दांत प्रतिभा के बूते पर लपकू चंपक जुगाड़ीजी  साहित्य में अवश्य अमर होकर ही मानेंगे। मगर अमर होने के लिए मरना पहली और बुनियादी शर्त है। और लपकू चंपक जुगाड़ीजी इस बुनियादी शर्त को वयस्ततावश और संकोचवश फिलहाल पूरा नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए अमर होने के बजाय बेचारे अमरबेल बनकर ही छाए हुए हैं। अमरता की बात अगर आएगी तो जिंदगी के कमर्शियल ब्रेक के बाद। हाल फिलहाल लपकू चंपक जुगाड़ीजी सार्वजनिक हित में साहित्य में अमरत्व का नहीं, सिर्फ मनोरंजन का केंद्र बने हुए हैं। एक रेडियो एक्टिव साहित्यकार बनकर। इनके लग्गू-भग्गू इन्हें मुहम्मद रफी से एक मीटर बड़ा गवैया मानते हैं। इस मामले में उनके अपनी अलग-अलग  डिजायन के तर्क हैं। वे दलील देते हैं कि रफी साहब ने अपनी पूरी जिंदगी में दस हजार गीत गाए थे। हमारे लपकू चंपक जुगाड़ीजी ने तो अपना एक ही गीत मंच पर दस हजार बार गाकर मज़ाक-ही-मज़ाक में एक नया कीर्तिमान कायम कर दिया है। और वो भी रेडियो में कठोर नौकरी करते हुए। अजब-ग़ज़ब कलाकार हैं हमारे- लपकू चंपक जुगाड़ीजी।  गाते हैं तो लगता है मानो शास्त्रीय संगीत की रैली में गीदड़-प्रलाप कर रहे हैं। लोग उनकी आह पर भी वाह करते हैं। आह और वाह के दलदल में तांडव करते लपकू चंपक जुगाड़ीजी अपनी दिव्य क्रीड़ा से श्रोताओं को घड़ी-घड़ी मोह रहे हैं। श्रोता और दर्शक  उनकी इस नौटंकी से मोहित होंगे ही ऐसा उनका अटूट अंधविश्वास है। हकीकत वो देख नहीं सकते। क्योंकि वे आनंद में हैं। आनंद के परम आनंद में। और आनंद में आंखें कहां खुलती हैं। वह तो उसी तरह बंद हो जाती हैं-जैसे दंगों के बाद बाजार की दुकानें। और फिर लपकू चंपक जुगाड़ीजी की आंखों में तो औकात से ज्यादा हथियाई कामयाबी की पट्टी भी बंधी है। मगर हमारे लपकू चंपक जुगाड़ीजी तो रेडियोएक्टिव साहित्यकार हैं। और रेडियोएक्टिव साहित्यकार तो अंधा होते हुए भी अंधेरे के कचरे में से अपने स्वार्थ के रंगीन पाउच ढूंढ ही निकालता है। रेडियोएक्टिव पदार्थ तो अंधेरे में ही चमकते हैं। इसलिए साहित्य में जितना अंधियारा होगा हमारे लपकू चंपक जुगाड़ीजी उतने ही ज्यादा चमकेंगे। किसी मनचले ने कहा है कि उल्लू की आंखें भी रेडियोएक्टिव होती हैं,इसीलिए वो अंधेरे में देख पाता है। बिलकुल हमारे लपकू चंपक जुगाड़ीजी की तरह। दोनों इस मामले में समान गोत्र के और समान डिग्री के विद्वान हैं। हम अनपढ़ इनकी बातें क्या समझें। पर इतना जरूर जानते हैं कि यदि उल्लू रेडियोएक्टिव जीव है तो वह जीवनभर रेडियोएक्टिव रहेगा मगर अपने लपकू चंपक जुगाड़ीजी तो जब तक रेडियो की नौकरी में हैं तभी तक ही रेडियो एक्टिव हैं। इसलिए वो आज चाहे कितनों को भी उल्लू बनालें मगर है खानदानी उल्लू के मुकाबले महज़ एक कमजर्फ उल्लू। मगर आप इनकी ताकत को कम न आंकें। पूरे गुलिश्तां को बरबाद करने के लिए एक ही काफी होता है। और लपकू चंपक जुगाड़ीजी तो लाखों में एक हैं।
आई-204,गोविंदपुरम,गाजियाबाद
मोबाइल-9810243966

Sunday, December 19, 2010

ज़ोर का झटका उन्हें ज़रा ज्यादा ही ज़ोर से लग गया



 हास्य-व्यंग्य-
निजी कारणों से हुई सरकारी मौत
पंडित सुरेश नीरव
बांसुरी प्रसादजी ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि ज़िंदगीभर चैन की बांसुरी बजानेवाले बांसुरी प्रसाद की मौत सरकार के जी का जंजाल बन जाएगी। संवेदनशील सरकार का एक कलाकार की मौत पर परेशान होना लाजिमी है। और फिर बांसुरी प्रसादजी तो सरकार के बुलाने पर ही लोक-कला-संगीत के जलसे में भाग लेने के लिए राजधानी आए थे। बांसुरी प्रसादजी़ की ज़िंदगी की ये फर्स्ट एंड फाइनल हवाई यात्रा थी। सरकार के सौजन्य से एक साथ उन्हें पांच सितारा होयल में ठहरने और हवाई जहाज में बैठने का टू-इन-वन प्रसन्नतादायक मौका मिला था। शायद खुशी के हैप्पी लम्हों की इस हैवी डोज़ को बेचारे बांसुरी प्रसादजी झेल नहीं पाए और अपनी जान पर खेल गए। कलाकार थे। और कलाकार तो बेचारे होते ही घोर भावुक हैं। सरकारी खातिरदारी का ज़ोर का झटका उन्हें ज़रा ज्यादा ही ज़ोर से लग गया। अब बांसुरी प्रसादजी तो हैवन सिधार गए मगर सरकार की जान सांसत में डाल गए। पूरा तंत्र परेशान है कि इस राष्ट्रीय आपदा से निबटा कैसे जाए। समस्या एक हो तो उससे निबटें भी मगर यहां तो बांसुरी प्रसादजी की बॉडी पर तो धारावाहिक समस्याएं उछल-कूद कर रहीं हैं। छोटे बाबू ने आकर बड़े बाबू से शिकायती लहजे में आकर खबर दी कि- बांसुरी प्रसादजी को दिल का दौरा पड़ा था। और उनके कलाकार दोस्त इत्ती-सी बात पर सरकार को भरोसे में लिए बिना उन्हें अस्पताल ले गए। और सर वो भी प्रइवेट अस्पताल में। सर...प्राइवेट अस्पताल का ढर्रा तो आप जानते ही हैं। अस्पतालवालों ने पूरी निष्ठा के साथ बांसुरी प्रसादजी के मरने के आठ घंटे बाद तक अपना इलाज जारी रखा और पांच लाख रुपए का बिल बना दिया है। अस्पताल प्रबंधक पूछ रहे हैं कि इस बिल का भुगतान कौन करेगा। मीडियावाले बांसुरी प्रसादजी की पत्नी को गांव से राजधानी बुलाने का भी दबाव डाल रहे हैं। सर, आप अपने बड़े बाबू से इस मसले पर तुरंत चर्चा करलें। छोटे बाबू ने बड़े बाबू को अपना दफ्तरी धर्म याद दिलाया। और समस्याओं की गेंद उनकी पाली में डालकर निश्चिंत हो गए। बड़े बाबू ने हथेली पर रगड़ी जा रही खैनी को मुंह की गुल्लक में डालते हुए छोटे बाबू से पूछा- अभी टाइम क्या हो रहा है। छोटे बाबू ने सहमते हुए कहा-साढ़े पांच। और ये दफ्तर कितने बजे तक का है। पांच बजे तक का। और वो अस्पताल जिसमें बांसुरी प्रसाद मरे हैं दफ्तर में है क्या। नहीं बड़े बाबू। तो फिर ऑफिस टाइम के बाद ऑफिस के बाहर की टिटपुंजिया घटनाओं के बुलेटिन पढ़ने का आपने पार्ट टाइम जॉब कर लिया है। बड़े बाबू ने छोटे बाबू के ढीले पेच कसे। और धमकी दी कि नौकरी करनी है तो अपनी सीमाओं को पहले समझो। जिस फाइल को देखने का तुम्हें जिम्मा दिया गया है उसके बाहर की बातों पर टिप्पणी की तुम्हें जरूरत नहीं है। याद रखो तुम एक सरकारी कर्मचारी हो कोई समाजसेवी नहीं। ऑफिस के प्रोटोकॉल को समझो। ध्यान से सुनो- बांसुरी प्रसाद की मौत का समाचार न तुम्हें मालुम है न हमें। क्योंकि जो चीज़ तुम्हारे अफसर को नहीं मालुम वो तुम्हें भी मालुम नहीं होना चाहिए। यही दफ्तर का दस्तूर है। अब अगर तुम्हारा अफसर कहे कि मुझे तुम्हारे पिताजी का नाम नहीं मालुम तो तुम्हें भी खींखीं करते हुए यही कहना चाहिए- सर... जब आपको नहीं मालुम तो मुझे भी कैसे मालुम हो सकता है। यही दफ्तर का दस्तूर है। अब तुमने मुझे जो सूचना दी है,वह ऑफ द रिकार्ड है। तुम क्या समझते हो। कि मेरे बड़े बाबू को इस हादसे की खबर नहीं होगी। उनका सामाजिक दायरा तुमसे बहुत बड़ा है। अपनी औकात समझो। तुम छोटे कर्मचारी हो। तुम्हें किसी के मरने की खबर उसके मरने के बाद ही मिलती है। बड़े साहब को किसी के मरने की खबर मरनेनेवाले के मरने से पहले ही मिल जाती है। जबकि मरनेवालों को तो अपने मरने की खबर मरने के बाद भी नहीं होती।  बड़े साहब की बड़ी पहुंच है। सुनो चाहे सारी दुनिया को बांसुरी प्रसाद के मरने की खबर मिल जाए हमें यह खबर दफ्तर में बड़े बाबू ही देंगे। और हम आंखें गोल करके और मुंह फाड़के चौंकते हुए पूछेंगे- अरे सर, कब डेथ हुई, बांसुरी प्रसाद की। समझ गए न। यही दफ्तरी रिवाज है। हमें क्या जरूरत है फालतू में किसी के फटे में पांव अड़ाने की। हम सरकारी कर्मचारी हैं। आज का दफ्तर-दफ्तर हम खेल चुके। दफ्तर खतम..चिंता हजम। चलो फटाफट हम अपने-अपने घर को कूच करें। बड़े बाबू ने कहा-माल-मत्ता भी लेना है। कल ड्राई डे है। जब शाम है इतनी मतवाली तो रात का आलम क्या होगा..गाते हुए बड़े बाबू घर को डिस्पैच हो लिए। रास्ते में सुलभ जन-सुविधा का संतोषजनक लाभ लेते हुए बड़े बाबू ने अपने बड़े बाबू को मोबाइल पर बांसुरी प्रसाद की मौत की खबर फुसफुसा दी। बड़के बाबू क्लबनशीन हो चुके थे। और भरपेट घूंटायित भी। उन्होंने इस अनावश्यक सूचना को सुनने के बाद अपना मोबाइल बड़ी सावधानी के साथ बंद कर लिया। और अपने आप को मीडिया के संसार से सतर्कतापूर्वक अपने में ही सिकोड़ लिया। सूंघा पत्रकार और खोजी चैनलिया रातभर आइस-पाइस खेलते रहे मगर बड़े बाबू की बरामदगी का सुराग उन्हें सुबह ऑफिस में ही आकर लगा। मीडिया ने पूछा कि- बांसुरी प्रसाद की मौत की खबर आपको है। बड़े साहब ने कहा- मुझे यह दुखद समाचार आप लोगों से ही सुनने को मिल रहा है। अस्पताल प्रबंधकों से भी हमें अभी तक ऐसी कोई सूचना नहीं मिली है। उनसे संपर्क हो जाने के बाद ही हम इस घटना पर कुछ कह सकेंगे। अच्छा नमस्कार। यह कहकर मीडिया को उन्होंने चलता कर दिया। और इसके बाद अपने सहयोगियों की आपातकालीन बैठक बुलाई और अपने स्तर पर मिस्टर सक्सेना को प्रकरण की वस्तुस्थिति का पता लगाकर तुरंत पूरे मामले को समुचित आख्या के साथ फाइल पर लाने का लिखित सरकारी आदेश दे डाला। चार घंटे की कठोर-मनोरंजक मशक्कत के बाद सक्सेना ने बड़े साहब के आगे अपनी मानवीय संवेदनाओं से भरपूर फाइल परोस दी। मजमून इस प्रकार था-
दिनांक 18 दिसंबर2010
पत्र संख्या-अ.ज. 420
श्रीमान निदेशक महोदय,
 निवेदन है कि कला-संगीत समारोह में भाग लेने आए बांसुरी प्रसाद की हार्ट अटैक से हुई मृत्यु की पुष्टि अस्पताल प्रबंधकों ने की है। और अपने पक्ष को प्रामाणिक बनाने के लिए बांसुरी प्रसाद का डेथ सर्चीफिकेट भी हमें भिजवा दिया है। मगर उन्होंने बिना बिल का भुगतान किए बॉडी देने में अपनी असमर्थता जताई है। ऐसे मामलों में किस मद से राशि का भुगतान किया जाए इस दिशा में ब्रिटिश सरकार से लेकर आज तक की फाइलों का अवलोकन कर लेने पर भी ऐसी कोई मिसाल सामने नहीं आई है। इसलिए कृपया  आप समुचित व्यवस्था दें।
                                                        हस्ताक्षर
                                                 चुन्नीलाल सक्सैना
                                                  सेक्शन ऑफीसर
सेक्शन ऑफीसर के मजमून को बारीकी से जांचने के बाद बड़े बाबू ने चंद मानवीय आपत्तियों के साथ कुछ जरूरी जानकारियां मांग लीं-
दिनांक 18 दिसंबर2010
पत्र संख्या-अ.ज. 420
अति आवश्यक
उपरोक्त पत्र के संदर्भ में बताएं कि-
(1)          बांसुरी प्रसाद का देहांत जब उनके अपने निजी कारणों से हुआ है तो फिर सरकार द्वारा  उनके बिल भुगतान का औचित्य कैसे तय किया जा सकेगा।
(2)          कार्यक्रम में भाग लेने से पहले ही बांसुरी प्रसाद ने मरने की जो गैरजिम्मेदाराना हरकत की है उससे आयोजन की प्रतिष्ठा पर भी आंच आ सकती है। ऐसे में उनका पारिश्रमिक रोकने और हर्जाने के बतौर उनके परिवार से क्या जुर्माना वसूली की जा सकती है। ताकि भविष्य में भी कोई कलाकार कार्यक्रम के दौरान मरने-जैसी ओछी हरकत करने की हिम्मत न कर सके। इस संबंध में एकाउंट सेक्शन से तुरंत और विस्तृत आख्या ले लें।
(3)          ध्यान दें कि बांसुरी प्रसाद को सरकार ने बुलाया था मगर अपने निजी फायदे के लिए बांसुरी प्रसाद ने मरने के लिए जानबूझकर निजी अस्पताल ही चुना। जबकि यह कार्य बड़ी आसानी के साथ सरकारी अस्पताल में भी संपन्न हो सकता था। मृतक के इस संदिग्ध आचरण को देखते हुए भी क्या सरकार उनके मरने के बिल का भुगतान करने को लिए बाध्य है। जरूरी समाधानों के साथ तुरंत टिप्पणी दें।
                                                     हस्ताक्षर
                                                      सचिव
बड़े साहब की फाइल पढ़कर सक्सैना बाबू ने तत्काल टिप्पणी भेज दी-
महोदय,
आपकी मांगी गई जानकारी के बाबत..
ऑफिस मेनुअल के अनुसार और फिर मृतक के संदिग्ध आचरण को देखते हुए सरकारी मद से उनके बिल का भुगतान करना निश्चित ही एक भावुक कृत्य होगा। लेकिन जैसा कि आप अच्छी तरह जानते हैं कि सरकारी तंत्र भावनाओं से नहीं नियम-कानून से चलता है। फिर भी आप को विवेकाधीन मद से बिल के निस्तारण का अधिकार है। मगर आपके संज्ञान में यह लाना भी जरूरी होगा कि ऐसा करने से जो नई परंपरा बनेगी उसकी आगे के समय में कलाकारों द्वारा दुरुपयोग की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। गौरतलब है कि इस मामले में समाजसेवी संस्थाएं आरटीआई डालकर आपसे सवाल-पड़ताल करने को स्वतंत्र होंगी।
फाइलों की ये दफ्तरी बॉलीबाल पूरे शबाब पर थी। कि तभी बड़े साहब को मुख्यमंत्री कार्यालय ने तलब कर लिया। हाथ में फाइल और सिर पर पांव रख के बड़े साहब सशरीर मुख्यमंत्री धाम सिधार गए। बड़े साहब को हड़काते हुए मुख्यमंत्री ने पूछा- बांसुरी प्रसाद की बॉडी अभी तक अस्पताल में क्यों है। बड़े बाबू ने कांपते हाथों और हांफते गले से फाइल आगे बढ़ाते हुए कहा- सर अस्पताल का बिल सेटल होना है। पांच लाख रुपए का बिल है। पैसा किस मद से..बड़े बाबू की बात का मुख्यमंत्री ने गले  में ही गला दबा दिया और बोले- मुख्यमंत्री कोष से पचास लाख रुपए निकाल लो बांसुरी प्रसाद-जैसे महान कलाकार रोज़-रोज़ थोड़े ही मरते हैं। फिर चुनाव भी सिर पर हैं। मेरे चुनाव क्षेत्र में इसकी जाति के डेढ़ लाख वोट हैं। मुझे इस चिरकुट की मौत को पूरी तरह भुनाना है। बांसुरी प्रसाद को गांव ले जाने के आप तुरंत इंतजाम करें। मैं भी साथ में जाऊंगा। चुनाव सिर पर हैं। मुख्यमंत्रीजी की राजनैतिक भावुकता देखकर बड़े बाबू के होठों पर भी एक सरकारी हंसी तैर गई। शाम को सारे देश ने मुख्यमंत्री को बिना आंसूवाली आंखें रूमाल से पौंछते हुए टीवी पर बार-बार देखा। संवेदनशील मुख्यमंत्री के लिए राजधानी के कला महोत्सव के मुकाबले अपने गांव की नौटंकी में शरीक होना ज्यादा फायदे का सौदा जो है। चुनाव में इस बार वोटों की फसल अच्छी होने की पूरी संभावना है क्योंकि बांसुरी प्रसाद रूपी जैविक खाद को सही ऋतु और सही समय में इस्तेमाल जो कर लिया गया है।
आई-204,गोविंदपुरम,गाजियाबा.
मो.9810243966

Thursday, December 16, 2010

मातमपुर्सी-पर्यटन


 हास्य-व्यंग्य-
शोकसभा का कुटीर उद्योग
पंडित सुरेश नीरव
आज सुबह-सुबह शोकसभानंदजी का हमारे मोबाइल पर अचानक हमला हुआ। मैं-तो-मैं, मेरा मोबाइल भी आनेवाली आशंका के भय से कराह उठा। शोकसभानंदजी की हाबी है उत्साहपूर्वक शोकसभा आयोजित करना। हर क्षण वह तैयार बैठे रहते हैं कि इधर किसी की खबर आए और उधर वे तड़ से अपनी शोकसभा का कुटीर उद्योग शुरूं करें। वैसे इनको जैसे ही किसी की बीमारी की खबर मिलती है,उनकी बांछे खिल जाती हैं। महीने में यदि पंद्रह से कम शोकसभाएं होती हैं तो खुद शोकसभानंदजी की तबीयत बिगड़ने लगती है। शोकसभाएं शोकसभानंदजी का प्राणतत्व है।  मजाल है कोई बड़ा आदमी बीमार पड़े,अस्पताल में भर्ती हो, और शोकसभानंदजी मातमपुर्सी-पर्यटन के लिए उसे देखने न जाएं। बीमार के घर या अस्पताल में आना-जाना शोकसभा के आयोजन का अचूक निवेश है। इससे एक बात की गारंटी हो जाती है कि शोकसभा का ठेका उसे ही मिलेगा और कोई दूसरा नहीं झटक पाएगा। वैसे क्या बताएं आजकल शोकसभा के कुटीर उद्योग में भी ब़ड़ी गला-काट प्रतियोगिता शुरू हो गई है। कई डिजायन के शोकसभानंदजी पूरी तैयारियों से लैस होकर शोकसभा इंडस्ट्री में कूद चुके हैं। मगर हमारे शोकसभानंदजी आज भी इस इंडस्ट्री के पहले पायदान पर डटे हुए हैं। और भगवान की कृपा से अपने कई प्रतिद्वंदियों की शोकसभाएं वे सफलतापूर्वक निबटा चुके हैं। इनके लिए संबंध,व्यवहार, और रिश्ते शोकसभा का कच्चा माल हैं। इसके पकने का शोकसभानंदजी धैर्यपूर्वक इंतजार करते हैं। पूचने पर बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ में कहते हैं कि- सहज पकै सो मीठो होए..। मोबाइल पर मैंने  इनसे पूछा- कहिए शोकसभानंदजी आज कौन-सा विकेट गिरा। उन्होंने झुंझलाकर कहा-क्या मतलब है,आपका। अभी तो कहीं कोई क्रिकेट मैच नहीं हो रहा। और फिर आप कबसे क्रिकेट में दिलचस्पी लेने लगे। मैंने कहा भैया मैं उस क्रिकेट की बात कर रहा हूं,जिसके कि आप स्पेशलिस्ट हैं। जाने कितनी सेंचुरी बना चुके हैं,आप। और अब भी नाट आउट हैं। शोकसभा के टेस्टमैच के आप बेताज बादशाह हैं। इसलिए मैंने पूछा कि आज कौन-सा विकेट गिरा। शोकसभानंदजी बोले- एक तो मैं समाजसेवा करता हूं,अपना समय लगाता हूं और आप लोग हैं कि मुझ पर फब्तियां कसते रहते हैं।  अच्छा सुनिए मेरे पास टाइम कम है। कम-से-कम सौ लोगों को अभी सूचना देनी है। सौ लोगों को फोन करो तो पलट के पचास लोग आते हैं। आजकल तो लोगों में इंसानियत ही नहीं रही। अरे भई यह तो व्यवहार है। अगर आप लोगों की अंत्येष्टी में नहीं जाओगे तो आप की अंत्येष्टी में कौन आएगा। आपको बता दूं कि कल रात कालीप्रसाद अवस्थी नहीं रहे। आज 11 बजे उनका अंतिम संस्कार है। मैं तो रात से वहीं डटा हुआ हूं। और इतनी कुशलता से रो रहा हूं कि  उनके दूर-दराज के रिश्तेदार तो मझे ही उनका बेटा समझकर ढांढस बंधा रहे हैं। शोकसभानंदजी  ने हंसते हुए बताया कि- असली बेटे इस बात से ज्यादा दुखी होकर रो रहे हैं कि आरीजनल बाप तो हमारा मरा है और ये डुप्लीकेट सारा क्रडिट खुद लिए जा रहा है। शोकसभानंदजी पुराने अभ्यासी हैं, उन्हें रोने-धोने की प्रतियोगिता में कौन मात दे सकता है। इन बेचारों के तो इकलौते पिताजी थे और वह भी पहली-पहली बार मरे थे। शोकसभानंदजी  ने बेटों से कहा- कब तक पिताजी की मिट्टी खराब करोगे,मुझे पैसे दो तो अर्थी,कफन तथा अन्य जरूरी सामान लेकर आऊं। सबसे मेरा परिचय है। माल ठीक और सस्ता मिलेगा। श्मशानभूमि में भी एडवांस बुकिंग करानी पड़ेगी। आजकल सीजन चल रहा है। मुर्दों का काफी रश रहता है। लकड़ी कितनी लेनी है। खाली चालू लकड़ी, या फिर चंदन की भी लेनी है। वीआईपी कोटेवालों को ही चंदन की लकड़ी मिलती है। थोड़ी-सी तो लेनी चाहिए। इससे समाज पर इंप्रेशन पड़ता है। और वैसे भी कौन से पिताजी रोज़-रोज़ मरते हैं। दिल खोलकर क्रियाकर्म करिए।  यह था शोकसभानंदजी का इमोशनल अत्याचार। उन्होंने रोकड़ झटके और चल दिए अपनी दिहाड़ी बनाने। जब अर्थी उठी तो शोकसभानंदजी की खुशी छुप नहीं रही थी। अच्छा कमीशन सूत लिया था। इसलिए इंकलाबी अंदाज़ में कह रहे थे-राम नाम सत्य है,सत्य बोलो गत्य है। सभी लोगों के अकर्षण का केन्द्र बने हुए थे- शोकसभानंदजी। बीट-बीच में वे मोबाइल से जनाजे का लाइव टेलीकास्ट करते जा रहे थे। थोड़ी देर में हमलोग श्मशानघाट पहुचनेवाले हैं। बिजली वाले श्मशान पर मत चले जाना।  लकड़ीवाले पर ही आना। चंदन की लकड़ी भी मंगवाई है,लड़कों ने। बड़े अच्छे लड़के हैं। भगवान करे,ऐसे बच्चों के मां-बाप तो रोज़-रोज़ मरें। उत्साह में शोकसभानंदजी कह गए। फिर गलती का एहसास हुआ। दांत से जीभ काटी और तुरंत फोन काट दिया। और फिर किसी और को सूचना देने लगे। चिता को सजाने में भी पूरे उत्साह से उन्होंने बेटों को सहयोग दिया। भारी लकड़ी को सीने पर रखते। फिर मुआयना करने के बाद लड़कों से कहते,कैसी फिट बैठी है,ये लकड़ी इनके सीने पर। ऐसा लग रहा है पेड़ पर स्पेशली आपके पिताजी के लिए ही उगी थी। वो वाली लकड़ी पैरों पर रखिए। मेरा तजुर्बा है। इससे लाभ उठाइए। वरना बहुत परेशानी होगी। बीच-बीच में मोबाइल पर किसी को बताते,जल्दी आ जाइए। मुखाग्नि का आयटम शुरू होनेवाला है। और ये चैनलवाले कहां मर गए।  ग्यारह का टाइम दिया था। अब 11.30 हो गए। अभी तक एक भी नहीं आया। अरे फोकट में कौन आता है। मैंने तो पहले ही लड़कों से कहा था कि मीडिया के लिए अलग से व्यवस्था करनी पड़ेगी। कहने लगे कि ऐसे मौकों पर थोड़े ही लेन-देन होता है। अब उन्हें कौन समझाए कि देश में हजारों लोग रोज़ मरते हैं मगर कवरेज कितनों की होती है और क्यों होती है। अरे कवरेज की लालसा में रोज़ कितने लोग मर जाते हैं। मगर मरकर भी बेचारों की कवरेज नहीं होती। साले भ्रम में जी रहे हैं। अरे जब कफन फ्री नहीं मिलता तो कवरेज कैसे फोकट में हो जाएगी। अब करा लें कवरेज। लड़कों को जाकर हड़काया-भड़काया- कि बिगाड़ दिया ना खेल। टाइम निकला जा रहा है,और कोई भी चैनलवाला नहीं आया। आप लोगों को कम-से-कम ऐसे मौके पर तो कंजूसी नहीं करनी चाहिए थी। अरे यही तो मौके होते हैं कवरेज हड़पने के। पिताजी जिंदगीभर कवरेज के लिए तरसते रहे। विरोधी हर जगह टंगड़ी मारते रहे। आज हाथ आया मौका फालतू में गंवा दिया,आप लोगों ने। अभी भी कहें तो डील करूं। श्मशानघाट पर कुछ लोगों के बाइट्स तो आने ही चाहिए। इससे शोकसभा में सो आ जाता है। इसबार शोकसभानंदजी  का तीर निशाने पर लगा। लड़के टूट गए। अच्छी रकम एंठने के बाद पूरे जोर-शोर से शोकसभानंदजी मीडिया को इक्ट्ठा करने में लग गए। चूंकि मीडिया शोकसभानंदजी  के कहने पर आया था इसलिए सब जगह शोकसभानंदजी  छाए रहे। मीडिया ने शोकसभानंदजी  को ऐसे प्रचारित कर दिया जैसे दिवंगत साहित्यकार इनके गुरू न होकर ये ही उनके गुरू हों। अब मरनेवाला आकर खंडन तो करने से रहा। इस तरह हर साहित्यकार के मरने पर ठिगने कदवाले शोकसभानंदजी  साहित्य में दो-चार इंच ऊंचे बढ़ जाते हैं। इनके कद की बढ़ोतरी के लिए जरूरी है किसी का मरना। और फिर उसकी दिव्य और भव्य शोक सभा भी होना। शोकसभा इनके व्यक्तित्व विकास का कच्चा माल है। रासायनिक खाद है। इंतजार कीजिए आपके मोबाइल पर भी जल्दी ही शोकसभानंदजी  दस्तक देनेवाले हैं,क्योंकि इन दिनों शहर में कई साहित्यकार बीमार चल रहे हैं।
आई-204,गोविंदपुरम,गाजियाबाद
मोबाइल-9810243966

Monday, December 13, 2010

सच बोलने के लिए दिमाग की जरूरत नहीं पड़ती है।

हास्य-व्यंग्य-
झूठ की मोबाइल अकादमीः पिद्दी राजा
पंडित सुरेश नीरव

 सच बोलने के लिए दिमाग की जरूरत नहीं पड़ती है। जब से मैंने यह महावाक्य पढ़ा और सुना है तभी से जितने भी दिमागी-विद्वान लोग हैं, उन्हें मैं झूठा मानने लगा हूं। और दुनिया के जितने भी झूठे हैं,उन्हें विद्वान। इस समीकरण के मुताबिक जो जिस दर्जे का झूठा वो उसी दर्जे का विद्वान। इस फार्मूलानुमा फंडे ने जिंदगी की व्यावहारिकता के जटिल गणित को बहुत सरल कर दिया है। बिलकुल मोबाइल के टॉक टाइम की तरह। अब आप सार्वजनिकरूप से किसी को भी झूठा कह सकते हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि जिसे आप झूठा कहना चाहते हैं,उसे उसके सामने ही क्या सारी पब्लिक के सामने आप झूठा कह सकते हैं। और मज़ा यह कि पब्लिक और वह प्राणी जिसे आप झूठा कहें दोनों अति प्रसन्न। पब्लिक इस बात पर खुश कि इतना दुस्साहस तो किसीने हंसते-हंसते कर के दिखा दिया। सीधी-सी बात है- आप जिसे झूठा कहना चाहते हैं बस आपको पूरी विनम्रता के साथ उसे इतना ही तो कहना है कि अमुकजी-जैसा विद्वान मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा। और विद्वान तो चलो बहुत ढ़ूंढ़ने पर इत्तफाक से एक-आध कहीं मिल भी जाए मगर हमारे आदरणीय तो महाविद्वान हैं। जैसे ब्राह्मणों में महाब्राह्मण होते हैं। कुछ-कुछ उसी गोत्र के कानकाटू महाविद्वान। विद्वान हैं तो दिमाग भी ये अब्बल दर्जे का ही रखते हैं। और जब दिमाग है तो क्यों न उसे झूठ बोलने-जैसे रचनात्मक कार्य में खर्च किया जाए। सच बोलने में तो वैसे भी दिमाग की जरूरत कहां होती है। इसीलिए तो गधे कभी झूठ नहीं बोलते। गधे जो ठहरे। बिना दिमाग के निरीह प्राणी। आदमी शान से झूठ बोलता है क्योंकि उसके पास आला दर्जे का दिमाग है। हां, ये बात दीगर है कि जब कभी आदमी का दिमाग खराब हो जाता है तो वो भी सच बोलने-जैसी हरकत कर बैठता है। मगर जैसे ही उसे अपनी गलती का एहसास होता है,वो पछताता है। बार-बार अपनी गलती,अपनी मूर्खता को कोसता है। धिक्कारता है अपने को कि आदमी होकर क्या जरूरत थी उसे सच बोलने की। वह ईश्वर के आगे अपने दोनों कान पकड़कर माफी मांगता है कि अनजाने में मुझसे पाप हो गया है,मुझे माफ कर देना प्रभु। आप तो परम दयालु हो। आइंदा ऐसी गलती नहीं होगी।  आपकी कसम खा नहीं सकता क्योंकि वो तो मैं झूठ बोलते समय ही खाता हूं। मगर इस वक्त मजबूरी में मुझे सच बोलना पड़ रहा है। एक चमचे की मस्केबाजी से प्रसन्न अफसर की तरह भगवान भी भक्त की हाईक्वालिटी की प्रार्थना से पसीज जाते हैं। और फिर भक्त  सतर्कतापूर्वक झूठे मुंह भी कभी सच नहीं बोलता है। उसे भगवान से पंगा लेना है क्या। अगर भगवान को उससे सच ही बुलवाना होता तो उसे दिमाग ही क्यों देते। अब वो हमेशा दिमाग लगाकर ही दिमाग का उपयोग करेगा। भले ही उस वक्त दिमाग सातवें आसमान पर ही क्यों न हो। भक्त को तो राजनीति भी करनी है। भक्त सोचता है कि राजनीति में दागी और दिमागी होना पहली शर्त है। और फिर वह ठहरा खानदानी सियासतबाज। सियासत का पिद्दी राजा। ये उसके दिमाग का ही कमाल है कि कभी राजा के महल में चपरासी रहे पिता की औलाद आज राजा के नाम से कुख्यात है। और वो भी तब जब कि देश में राजतंत्र कभी का खत्म हो चुका है। राजा की आएगी बारात रंगीली होगी रात का महानायक। रात की रानी चोरों का राजावाला पिद्दी राजा। चोरों के बीच सियाने की छवि रखनेवाला खुरापाती पिद्दी राजा। जिसका खुराफात में दिमाग चलता है और दिमाग में खुराफात चलती है। जैसे नाले में पड़ा कोई चिकना घड़ा। जिसके भीतर भी कीचड़ और बाहर भी कीचड़। बस बीच में सियासत के झूठ की झीनी-सी दीवार।  कंप्यूटर की जुबान में बोलें तो खुराफात पिद्दी राजा की मेल आई-डी है और झूठ पासवर्ड है। सच्चाई का पासवर्ड रखकर इन्हें जिंदगी में फेल होना है क्या। पिद्दी राजा बड़े कुशाग्र झूठे हैं। मेधावी लफ्फाज हैं। बड़े परम असत्यवादी हैं। सत्यवादी हरिश्चंद्र की काट में भगवान ने इन्हें मार्केट में उतारा है। बेचारे हरिश्चंद्र को तो सत्य के चक्कर में चांडाल की नौकरी तक करनी पड़ी थी। पिद्दी राजा ने उस चांडाल की टूटी-फूटी झौपड़ी पचाकर अपनी प्रबल-प्रचंड प्रतिभा का परिचय दे डाला। अब मुकद्दर का मारा चांडाल इनका बंधुआ मजदूर है। ये है झूठ की ताकत। सच बोलने और सच के रास्ते पर चलने में दिमाग का क्या काम। तय है पिद्दी राजा हरिश्चंद्र से ज्यादा ब्रिलिएंट और इंटेलीजेंट हैं। दमयंतीवाले राजा नल से भी ज्यादा इंटेलीजेंट। जो नल होकर भी प्यासे थे। अपने पिद्दीराजा का तो जी चाहता है कि प्यास लगे और वो रोज शराब और शवाब से अपनी प्यास बुझाएं। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि सतयुग में तो कोई विद्वान होता ही नहीं होगा। क्योंकि सच बोलने में दिमाग का क्या काम। उस दौर में किसी की खोपड़ी में दिमाग होना वैसे ही यूजलैस होता होगा जैसे बिनलादेन के हाथ में हजामत का सामान। पिद्दीराजा से मिलकर तो हमें बापू के बारे में भी नए सिरे से सोचना पड़ेगा जो सदा सत्य बोलो के नुस्खे के जरिए सारे देश के लोगों को दिमागहीन बनाने पर तुले हुए थे। पिद्दीराजा का मानना है कि उनकी ये हरकत ही गोडसे को नागवार गुजरी थी। उसने जो भी किया देशहित में किया। पिद्दीराजा देश को गांधीजी की तरह बरबाद नहीं करना चाहते हैं। इसलिए सत्यमेव जयते-जैसे जुमलों को दिल पर नहीं लेते हैं। वैसे भी हंसी-मजाक की बातों को सीरियसली नहीं लेना चाहिए। बड़े दिमागी हैं पिद्दीराजा। एक कुशल ड्रायवर की तरह- आगे खतरनाक मोड़ है जैसी सूचनाओं को पढ़कर संभले हुए ड्रायवर की तरह वे हमेशा सत्य से संभावित होनेवाली मुठभेड़ से बाल-बाल बच जाते हैं। बड़े पहुंचे हुए झूठानंद हैं हमारे पिद्दीराजा। उनके विरोधी कहते हैं कि पिद्दीराजा झूठ बोलते हैं। यह एक बड़े आदमी का सरासर अपमान है। हकीकत तो यह है कि वे सिर्फ झूठ और सिर्फ झूठ बोलते हैं। सत्ताइस कैरेट का खालिस टंच झूठ।  झूठ उनकी शान है। आन है,बान है। पिद्दीराजा चलते-फिरते झूठिस्तान हैं। ऐसा झूठधर्मी अखिलभारतीय व्यक्तित्व देश को ही क्या दुनिया को भी सौभाग्य से ही मिलता है। हमें गर्व है कि पिद्दीराजा-जैसी दुर्दांत आत्मा ने भारत में जन्म लेकर भारत को ऑब्लाइज किया। और झूठ बोलने की ललित कला को आगे बढ़ाया। वैसे तो झूठ हर शरीफ आदमी बोलता है इसमें खास क्या है। खास तो तब है जब कोई अपने एक अदद झूठ से ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को बेवकूफ बना सकें। झूठ तो फुटपाथ पर चादर बिछाकर ताकत की दवा बेचनेवाला मेवाफरोश भी बोलता है। मगर सत्तर-पचहत्तर साल के चंद बूढ़ों को जवानी का जोश दिलानेवाली पुड़ियां थमाने में ही उसका झूठ-जैसा कीमती माल खर्च हो जाता है। झूठ की एक टुच्ची-सी कुल्फी होती है,उसके पास। जिसे वह चूसता रहता है। हमारे पिद्दीराजा तो झूठ के हिमालय हैं। मेवाफरोश अपनी ज़िंदगी में कुल जितने लोगों को अपने झूठ से बेवकूफ बना पाता होगा उससे कहीं ज्यादा लोगों को बेवकूफ तो हमारे पिद्दीराजा एक झपट्टे में ही बना देते हैं। उससे ज्यादा दिमाग है,इनके पास। वो झूठ का कुटीर उद्योग चलाता हैऔर पिद्दीराजा झूठ का भारी उद्योग चलाते हैं। बड़ा फ़र्क होता है दोनों में। मीडियवाले इस फर्क को जानते हैं। जौहरी ही हीरे की कद्र जानता है।  मीडियामंडी के जौहरी झूठ के इस नायाब हीरे की कीमत जानते हैं। इसीलिए वे पिद्दीराजा का सम्मान करते हैं। पिद्दीराजा वारदात से लेकर लाफ्टर शो तक फिट और हिट हैं। मीडिया के चैनलों की टीआरपी की चलती-फिरती हंडी हैं,हमारे पिद्दीराजा। सौभाग्य है मीडिया का कि बिना टेलैंट हंट किए उन्हें घर बैठे एक बेजोड़ प्रतिभा मिल गई। इसे कहते हैं कि हर्र लगे न फिटकिरी और रंग चोखा आ जाए. मगर पिद्दीराजा की तो हर बात में झूठ की हर्र और फरेब की फिटकिरी मिली होती है। बड़ा आयुर्वेदिक झूठ होता है पिद्दीराजा का। इसीलिए तो हर महफिल में उनका रंग चोखा जमता है और सामनेवालों के चेहरे के रंग उड़ जाते हैं। वैसे भी सच बोलनेवाले तो आजकल बेचारे मीडिया दफ्तर के सिक्यूरिटी गार्डों से पिटकर ही संतोष कर लेते हैं। सिक्योरिटी गार्ड की दुत्कार और फटकार ही इनका गिफ्ट हेंपर होता है। पिद्दीराजा की सब कदर करते हैं। पिद्दीराजा की बदौलत सत्य का सोना भी झूठ का लोहा मानता है। पिद्दीराजा ने कोटि-कोटि गोरेपन की क्रीमों को रगड़-रगड़कर अपने झूठ को गोरा किया है। फकाफक सफेद झूठ। पिद्दीराजा का झूठ सफेदी की चमकार से चमचमाता हुआ सुपर सफेद झूठ होता है। इनके लकझक सफेद झूठ के आगे मैले-कुचैले झूठ की तो आंखें ही चौंधिया जाती हैं। जितने सफेद कपड़े उतना सफेद झूठ। सफेद झूठ की पुलकित यामिनी,दमिनी और कामिनी सभी मोहित होकर- हाय पिद्दीराजा के हॉट डॉयलाग बोलकर ठंडेपन के अहसास में छपाके मारने लगती हैं। पिद्दीराजा को देखकर ्ब तो मुझे अखंड विश्वास हो गया कि सत्य बोलने के लिए दिमाग की कतई जरूरत नहीं होती है। इधर कुछ ब्रेनलैस सत्यवादियों ने दुष्प्रचार कर डाला कि झूठ के पैर नहीं होते। अरे, अंधा हाथी की विशालता को कहां जानता है। पिद्दीराजा की सुपर सोनिक चाल को देखें तो धारणा अपने आप बदल जाएगी। एक झूठ के पैरों में सत्य के इतने शरीर दंडवत कर रहे होते हैं कि  उसके कमल-पैर दिखाई नहीं दे पाते और दिमागहीन लोग फैसला कर डालते हैं कि झूठ के पैर नहीं होते। अरे अब इन बुद्धिहीन सत्यवादियों को कौन समझाए कि झूठ का कमल तो खिलता ही सत्य के दलदल में है। कमल के पांव तो दलदल में ही होते हैं, दिखेंगे कैसे। बिलकुल पिद्दीराजा की तरह होता है कमल। जिसका निजी सौंदर्य भी सार्वजनिक होता है। बिल्कुल पिद्दीराजा के बयान की तरह। हाहाकारी झूठ का स्मोकबम हैं हमारे पिद्दीराजा। ऐसा दिमागी और दागी भला और कौन है जमाने में। जिसे हम झूठ की विद्वता की मोबाइल अकादमी कह सकें।
आई-204,गोविंदपुरम,गाजियाबाद
मो.09810243966


Saturday, December 11, 2010

हवासिंह-जैसा हवाबाज, दुनिया में दूजा और कौन हो सकता है।


हास्य-व्यंग्य-
हवासिंह हवा-हवाई
पंडित सुरेश नीरव
जब से हवासिंह किसी ऊपरी हवा के प्रभाव में आए हैं बेचारे की तो हवा ही खराब हो गई है। और हवा हुई भी इतनी खराब है कि नाक की प्राणवायु और कूल्हे की अपान वायु में कोई भेद नहीं रह गया है। हवा का ऐसा हवाई सदभाव हवाईसिंह-जैसे बिरलों को ही नसीब होता है। शरीर के दोनों सिरों से प्राणायाम करने का जटिल-कुटिल हठयोग हवासिंह की हवाबाजी का ही दुर्लभ नमूना है। कुछ विद्वानों का तो यहां तक कहना है कि भोपाल में जो गैसकांड हुआ था उसके हाहाकारी यश की जिम्मादारी भले ही यूनियनकार्बाइट ने हथियाली हो मगर उसके मूल उत्पादक अपने हवासिंह भाईसाहब ही थे। अब आप तो सभी जानते ही हैं कि क्रेडिट हड़पने के मामले में इन अमेरिकनों का रिकार्ड तो हमेशा से ही खराब रहा है। हल्दी और नीम तक का पेटेंट-अपहरण करने में कभी न चूकनेवाला अमेरिका गैसकांड-जैसे महत्वपूर्ण और अंतर्राष्ट्रीय कारनामें का श्रेय भारत को कैसे लैने देता। वैसे राज़ की बात यह है कि यूनियन कार्बाइड और हवासिंह दोनों ही गैस उत्पादन की सहोदर संस्थाएं रही हैं। एक में गैस उत्पादन व्यावसायिक स्तर पर होता था और एक में गैस उत्पादन स्वांतः सुखाय होता था। यूनियन कार्बाइड दुर्घटनावश बंद हो गई। मगर हवासिंह संयंत्र आज भी चालू है। गैस लीक करने की अभद्र अमेरिकन शैली भारतीयों को बिलकुल पसंद नहीं आई। इसलिए यूनियन कार्बाइड को बोरिया बिस्तर बांधकर भोपाल से भागना पड़ा। माना कि आजकल भारतीयों का पश्चिमी सभ्यता के प्रति रुझान मंहगाई के ग्राफ की तरह बड़ा है मगर ललित कलाओं का संरक्षण भी तो हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। हर जलवायु में वायु के शास्त्रीयवादन में हवासिंह की जितनी दक्षता और पारंगतता है वह हमारे लिए राष्ट्रीय गौरव की बात है। उसके आगे टुटरूंटूं अमेरिकन कंपनी की क्या बिसात थी। हवासिंह-जैसा हवाबाज, दुनिया में दूजा और कौन हो सकता है। वो अपने आप में एक ही पीस है। पर उनकी पर्सैनैलिटी इतनी हवाई भी नहीं कि उसे यूं ही हवा में उड़ा दिया जाए। नाना प्रकार की वायुओं की गठबंधन सरकार का केन्द्रीय कार्यालय हैं- हवासिंह। इस कार्यालय की हिफाजत के लिए प्राणों की तो औकात ही क्या है हवा तक की बाजी लगा देते हैं, हवासिंह। क्योंकि उन्होंने पढ़ रखा है कि प्राण भी वायु ही है। और वायु में प्राण हैं और प्राण में वायु है। लेकिन जब अपनी पर आ जाते हैं तो हवासिंह वायु के भी प्राण निकाल देते हैं। और उतनी ही तत्परता से प्राण की वायु भी। अगर शास्त्रों की मान लें तो प्राण भी वायु है तो साहब बड़े-से-बड़े बहादुर भी सिर्फ एक बार ही प्राणोत्सर्ग करके शहीद हो जाते हैं मगर हवासिंह प्रति दिन हवोत्सर्ग की बिना आउट हुए कम-से-कम एक सेंचुरी तो बना ही लेते हैं। है कोई ऐसा जांबाज हवाबाज। इन हवासिंह के प्राण भी सर्कस के पशु-पक्षियों की तरह ट्रेंड हैं। पुलिस छापे के दौरान जैसे कुशल अपराधी भूमिगत हो जाते हैं वैसे ही संकट के समय इनके प्राण पखेरू उड़कर पेड़ पर जाकर निश्चिंत होकर लटक जाते हैं। और फिर संकट खत्म होते ही दुबारा पसलियों के पिंजरे में आकर दुबक जाते हैं। हवासिंह का व्यक्तित्व भी बड़ा हवायु है। हवायु यानी कि हवा और वायु का संयुक्त मोर्चा। जहां हवा को उलटा कर दें तो हवा, वाह..वाह कर उठे और वायु को उलटा कर दें तो वायु युवा हो जाए। खानदानी हवावंशी थे- हवासिंह। सूर्यवंशियों और चंद्रवंशियों के कारनामों के बोझ से तो हमारा इतिहास चरमरा रहा है मगर पराक्रम गाथाओं के बोझसे हांफते इस इतिहास को नीबू की सनसनाती ताजगी से लवरेज करने का काम इतिहास के दुर्लभ हवावंश गोत्र के इस इकलौते हवांतक राजकुमार का ही है। हवासिंह का कहना है कि पवनपुत्र हनुमान भी इनके हवावंश के ही वीर योद्धा थे। मगर इतिहासकारों की हवावंश का इतिहास लिखने में हवा खराब हो जाती थी। इसलिए किसी ने भी इन महान हवावंशियों का जिक्र जानबूझ कर नहीं किया। वरना समुद्र लांघने और संजीवनी बूटी वाले सुमेरु पर्वत को हाथ में लेकर उड़ने का दुरूह कार्य करनेवाले हवावंशियों को इतिहास में सूर्यवंशियों और चंद्रवंशियों-जैसी इंपोर्टेंस क्यों नहीं दी गई। उनकी तारीफ की हवा क्यों नहीं बांधी गई। और क्यों इनके योगदान को हवा में उड़ा दिया गया। क्या इन महत्वपूर्ण बातों को यूं ही हवा में उड़ाया जा सकता है। हवासिंह का गुस्सा जायज है। सचमुच में हवावंशिंयों के साथ परम अन्याय हुआ है। हवावंशियों के कारनामों के पुनर्मूल्यांकन के लिए ही इतने दिनों बाद हवासिंह का अवतार इस पृथ्वी पर हुआ है। हवासिंह हवावंश का इतिहास हवा के पन्नों पर लिखकर, देश में ही नहीं पूरी दुनिया में एक नई हवा बहा देंगे। हवासिंह के हवाई कारनामें इतिहास की उस हवाविहीन बॉडी में फिर से हवा पंप कर देंगे जो विरोधियों ने निकाल दी थी। अब हवासिंह अपने रास्ते में आनेवाले किसी भी विरोधी के मनसूबों के ट्यूब और गुब्बारों  को आक्रोश की सुई चुभाकर पंक्चर कर देंगे। इतिहास के आकाश में हवावंश की वीरगाथाओं की हवा से भरे नए गुब्बारे वह फिर से उड़ा देंगे। हवावंशियों की प्रशंसा की हवेलियों और हवामहलों को हवाओं में बनाकर हवासिंह तैरा देंगे। हवावंशियों के सम्मान में बने हवाना शहर को हवासिंह विश्व संरक्षित शहर घोषित कराकर ही दम लेंगे। वरना वे अच्छों-अच्छों की हवा निकाल देंगे। फिर भले ही पृथ्वी पर बुरे लोग ही रह जाएं। क्योंकि अच्छों की तो हवा निकालकर पहले ही निबटा देंगे, हवासिंह। उनकी हवाई बातों को पहले तो मैं भी लाइटली ही लेता था मगर उनकी वैज्ञानिक सूझबूझ की एक विराट झलक ने मेरे विचारों की तुच्छ आबो-हवा को ही बदल डाला। वह संसार के सारे वैज्ञानिकों को, और विचारकों को ललकारते हुए किसी यक्ष की मुद्रा में पूछते हैं कि न्यूटन ने यह छोटी-सी बात तो सब को बता दी कि ऊपर की चीज़ नीचे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की शक्ति के कारण जाती है मगर कोई चीज़ इस गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विपरीत ऊपर क्यों जाती है, हवा से भरे गुब्बारे आकाश में ऊपर ही क्यों जाते हैं,अग्नि की ज्वाला और धुंआ ऊपर क्यों जाता है, इसके बारे में क्यों नहीं बताया। कभी सोचा है किसी ने इस मुद्दे पर कि कौन-सी शक्ति है जो इन चीजों को ऊपर खींचती है। उनका दृढ़ विश्वास है कि यह सारे कारनामे उनके हवावंशी पुरखों की कृपा का ही परिणाम है। वह हवा में बैठे-बैठे इन गुब्बारों की डोरी अपनी ओर खींचते रहते हैं। और धुएं को लपकते रहते हैं। जबाव चाहिए हवासिंह को कि एक आदमी जो सात-आठ फुट से ऊंचा नहीं उचक सकता तो कौन है जो उस अदना से आदमी के बिना पंखवाले दिमाग को सातवें आसमान तक पहुंचाता है। कहां चला जाता है तब न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत। सिगरेट का धुंआ और मंहगाई हमेशा ऊपर ही क्यों जाते हैं। इन्हें क्या इसरो और नासा की मदद से ऊपर पहुंचाया जाता है। कोई किसी को अपने से ऊपर नहीं देखना चाहता। फिर कौन-सी शक्ति है,जो इन्हें ऊपर खींचती है। और-तो-और जब आदमी के होश उड़ते हैं तभी वह बेहोश होता है। बेहोश पड़े आदमी के होश कौन उड़ाता है। वह आदमी खुद तो बेहोश पड़ा होता है। और किसी दूसरे आदमी को जरूरत क्या पड़ी है, उसके होश ऊपर उड़ाने की। ऐसे ही जब आदमी मर जाता है तो फिर उस निर्जीव के प्राण पखेरू ऊपर कौन उड़ाता है। उसके प्राण पखेरू ऊपर ही क्यों उड़ते हैं। इस चर-अचर संसार में कौन है जो रात-दिन पृथ्वी की इस गुरुत्वाकर्षण शक्ति की हवा खराब करता रहता है। ऐसे ही गंभीर मुद्दों की पड़ताल करते हुए हवासिंह पूछते हैं कि मजाक क्यों और कैसे उड़ता है। खिल्ली उड़ती ही क्यों है। रेंगती क्यों नहीं। और फिर ये खिल्ली और मजाक आपका। और इसे उड़ाए कोई दूसरा। कौन है ये दूसरा।  वो आदमी जो कभी इस बात पर यकीन नहीं करता,रात-दिन बहस करता है कि हनुमानजी सुमेरु पर्वत लेकर उड़े थे या नहीं लेकिन जब उसकी पहाड़नुमा बीवी को लेकर कोई उड़ जाता है तो उसे विश्वास हो जाता है कि हनुमानजी पहाड़ लेकर जरूर उड़े होंगे। तय है कि वे साधारण मनुष्य कतई नहीं होंगे। साधारण आदमी जो अपनी हवा बंद हो जाने पर चूरण की शरण में चला जाता हो। क्या खाकर पहाड़ लेकर उड़ेगा। अरे,यह सारे अलौकिक कार्य हमारे हवावंशियों के ही हवाई कारनामें है। हवालात में हवा और लात का फास्टफूड खानेवाले फुस्स आदमी के नहीं। जो डायरी में भी हवा खाले तो हवा-ला कांड हो जाए। हवा में गांठ बांधने के जब भी हवात्कारी चमत्कार हुए हैं,वह सब हमारे हवावंशियों के हवाले से ही हुए हैं। और भविष्य में भी होते रहेंगे। यह कहते हुए हवासिंह खुद ज्वलनशील गैस के सिलेंडर हो जाते हैं। वो फड़फड़ते हुए पूछते है कि हजारों-लाखों बुझे दीपक और डूबी हुई नावों के मलबे पर खड़े कथित आदमी के फ्लैटों की बिजली कौन उड़ाता है। हवा का रुख देखकर ही क्यों उड़ती है बिजली। फिर खुद ही गुत्थी सुलझाते हैं- अरे बिजली मैया भी हवा पर सवार होकर ही उड़ती हैं। वो भी हमारे हवावंशी फेमिली की ही हैं। कभी सुना है आपने कि विज्ञान के विमान में बैठकर कभी-कहीं बिजली उड़ी हो। हवा धर्मनिरपेक्ष होती है। हवा का कोई मजहब नहीं होता। हमारे हवा के देश में कोई क्षेत्र विशेष नहीं होता मगर आदमी ने उसे भी पुरवा और पछवा हवा कहकर क्षेत्रियता में बांटने की कुत्सित कोशिश की है। हो सकता है कि कल आदमी हवा को इतने टुकड़ों में बांट दे कि मौसम वैज्ञानिक भविष्यवाणी करते हुए कहें कि आज साउथ इंडियन हवाएं इतनी तेज़ चलेंगी कि नॉर्थइंडियन हवाओं की हवा खराब हो जाएगी। इस आदमी का सोच ही हमेशा घटिया रहा है। मगर जब यही हवाएं तूफान के स्टेडियम में एक साथ मिलकर भांगड़ा करने लगती हैं तो मौसम वैज्ञानिकों की हवाई भविष्यवाणियां भी हवा के साथ-साथ,हवा के संग-संग, हवा में तिनकों की तरह उड़ जाती हैं। और तब पराजय के पसीने से लथपथ आदमी डॉयलॉग मारता है कि वो दिन हवा हुए जब पसीना गुलाब था। कितना झूठ बोलता है आदमी। उसका पसीना कभी गुलाब नहीं होता। वरना टीवी के पर्दे पर विशेष नस्ल का स्प्रे करती हसीनाएं नो पसीना का विजयी गीत काहे को गातीं। आदमी के इस झूठ को देख-सुनकर हवासिंह कहते हैं कि- हम हवावंशी इतना गुस्सया जाता हूं कि हमरे दांतों को भी पसीना आ जाता है। अब कल ही का बात है कि एक बहनजी रेडियो पर रंभाय रही थीं कि- पंख होते तो उड़ जाती रे रतिया हो बालमा। कहां पंखहीनता का स्यापा और उसके तनिक ही देर बाद एक दूसरी बहनजी पता नहीं चिल्ला-चिल्लाकर गा रही थीं कि गा-गाकर चिल्ला रही थीं कि- उड़ी-उड़ी जाऊं रे...उड़ी-उड़ी जाऊं रे। हमरी तो हालत ही खराब हो गई। भेजा से दिमाग और हाथ के तोते इस चिल्ल-पौं को सुनकर दोनो सलाह करके साथ-साथ उड़ गए। आखिर तोतों की भी तो कोई ईज्जत होती है। वे हाथों के तोते थे कोई आस्तीन के सांप नहीं, जो उड़ नहीं पाते।  उन्होंने जैसे ही सुना कि बिना पंखोंवाली बहनजी उड़ सकती हैं तो हम पंख लिए हाथों पर हाथ धरे हाथों का तोता बने काहे को अपनी बेइज्जती खराब कराएं। ससुर फट्ट से उड़ गए। हवासिंह के दिमाग में विचार आया है कि बहनजी के कहीं पंख तो नहीं निकल आए। सुना है कि चींटी के भी एक विशेष समय में पंख निकल आते हैं। शायद उसी डिजायन के पंख बहनजी के भी निकल आए हों। और शायद वो भी अपनी जिंदगी की पहली और आखिरी उड़ान भरने की सूचना गा-गाकर दे रही हों- उड़ी-उड़ी जाऊं रे...। चींटी ही होंगी,बहनजी,परी तो हैं नहीं। परियां तो हवावंशी होती हैं। हवासिंह के वंश की।  यह कह कर हवासिंह हवा हो गए। वो हैं ही हवा-हवाई।
आई-204,गोविंदपुरम,गाजियाबाद
मो.9810243966     

Saturday, December 4, 2010

बड़ेपन की फालतूनेस और छोटेपन की यूजफुल उपयोगिता


हास्य-व्यंग्य-
क्या फायदा बड़े होने में
पंडित सुरेश नीरव
ये छोटेपन का दौर है। कभी छुटपन में पढ़ा था कि बड़ा हुआ तो क्या हुआ,जैसे पेड़ खजूर..मगर अब जब बड़े हुए तब समझ में आई बड़ेपन की फालतूनेस। और छोटेपन की यूजफुल उपयोगिता। जिधर देखो उधर छोटेपन का जलबा। छोटेपन का दंभ। बड़े तो बेचारे अपने बड़प्पन की शर्मिंदगी के मारे गर्दन झुकाए बैठे हैं। और कोस रहे हैं अपने आप को कि काहे को बड़े हुए जबकि सब जगह छोटे की पूछ है।छोटा पर्दा,छोटीकार,छोटे कारोबार,छोटे-छोटे कपड़ों में सजी बड़े-बूढ़ों की छोटी-छोटी प्रेमकाएं। और छोटे-छेटे लोगों के बड़े-बड़े कारनामें। कल रघुवंशीजी को एक लघुवंशीजी ने जमकर पीट दिया। हड्डियों के तंबूरे पर बड़प्पन का राग आलापते हुए कराह रहे थे-अरे इन छोटे लोगों के क्या मुंह लगना। हम बड़े लोग हैं। हमारा बड़प्पन देखो वह हमें पीटता रहा और हम विनम्रतापूर्वक उससे पूछते रहे कि तुम्हें कहीं चोट तो नहीं आई,मेरे भाई। आखिर हम बड़े हैं। क्षमा बड़न को चाहिए छोटन कौ उत्पात। हमने उसे वीरतापूर्वक क्षमा कर दिया। फिर धीरे से मेरे कान के पास रघुवंशीजी आए और फुसफुसाए-क्या ऑफ द रिकार्ड में आपको डांट सकता हूं। मैं वैसे भी आपसे उम्र में छोटा हूं। इत्ती-सी लबर्टी लेना तो मेरा संवैधानिक अधिकार है। अगर इजाजत हो तो छोड़ी देर के लिए छोटे होने के फायदे मैं भी उठा लूं। थोड़ा मन बहल जाएगा। तम-मन में बड़ी पीढ़ा है। सोचता हूं आपको विनम्रतापूर्वक पीटकर थोड़ा हलका हो लूं। अब आप तो बड़े हैं। बस सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दीजिए कि मैं आपके दो-तीन लातें जमा सकूं। संकोच हो तो जरा रावण को याद कीजिए। उसने तो मिस्टर राम को विजयी भव होने का आशीर्वाद तक दे डाला था। जब कि उसे अच्छी तरह मालुम था कि अगले ने उसको मारने की सुपारी उठा रखी है। सचमुच रावण बड़ा आदमी था। इसीलिए मारा गया। आप भी बड़े आदमी हैं। और मैं कोई आपका वध थोड़े ही करूंगा। बस महिला पुलिस की तरह हल्का-फुलका लाठी चार्ज करूंगा। आप उदार हैं,दयालु हैं,विनम्र हैं,हर तरह से बड़े हैं। इस छोटे की मुराद पूरी कर दीजिए,प्लीज। भगवान आपको अच्छी सेहत दे ताकि आप ज्यादा-से-ज्यादा अपने छोटों को अनुग्रहीत कर सकें। वैसे आपके सूचनार्थ विनम्र निवेदन है कि आजकल छोटों से पिटना लेटेस्ट फैशन है। अब अध्यापक छात्रों से, अफसर चपरासियों से और डैडी लोग अपने श्रवण कुमारों से खूब हेप्पिली पिट रहे हैं।  ऐसी ही दिव्य लीलाओं से ही हमारा इतिहास गौरवशाली हुआ है। टुच्चे फिरंगियों के लुच्चे अऱमानों की खातिर हमारे क्रांतिकारी हंसते-हंसते,फांसी के फंदों पर चढ़ गए थे। फांसी लग रही है,वे हंस रहे हैं। क्षमा बड़न को चाहिए,छोटन कौ उत्पात। उन्होंने सिद्ध करके बता दिया था। बड़े लोग थे। किताबों में ही पढ़ा था ऐसे बड़े लोगों के बारे में। आज आप साक्षात मिले हैं। आप भी बड़े आदमी हैं। मेरी नज़रों में तो आफ भी जिंदा शहीद हैं। प्लीज अब आप और बड़े हो जाइए। और इस छोटे आदमी की मर्मांतक प्रार्थना को स्वीकारिए और कृपानिधान मुझे वरदान दीजिए कि मैं अपनी मनोकामना पूरी कर सकूं। आपको सामाजिक न्याय की दुहाई,। आपको सामाजिक समरसता की कसम। हे,प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो। रघुवंशीजी अपने बड़े को पीटने की भावुक मनुहार करता रहे। मगर जब कथित बड़ा मैं पिटने के लिए मानसिकरूप से तैयार नहीं हुआ तो छोटे आदमी को गुस्सा आ गया। उसने फटाक से करुणरस से उछलकर वीर रस में छलांग लगा दी और बोला- आप मेरी शराफत का नाजायज फायदा मत उठाइए। आप इतनी देर से मेरा उत्पीड़न कर रहे हैं और मैं चुपचाप सहन किये जा रहा हूं। आप अपने आप को समझते क्या हैं। इस उधारी के बड़प्पन के बोझ से दबकर आप भी एक दिन डायनासौर की तरह खत्म हो जाएंगे। अरे हम तो मच्छर हैं। हमारा क्या। मच्छर को मारने के लिए मच्छरदानी,डीडीटी,ऑलआउट,कॉयल और तमाम ऑयल आदमी ने निकाले मगर क्या हुआ मच्छर का। मुद्दई लाख बुरा चाहे क्या होता है,वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है। मच्छर की शान में क्या कमी आई। आदमी ही रुआंसा हुआ कहता फिरता है- कि एक साला मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है। देख लो सारे आदमी मिलकर एक मच्छर को हिजड़ा नहीं बना सकते। और एक अदना-सा मच्छर अकेला ही अच्छे खासे आदमी को जब चाहे किन्नर बना देता है।  अबे मलेरिया अफसर की औलाद। ध्यान रख मैं मच्छर हूं, तुझे  तबाह कर दूंगा। मच्छर की ऐसी निर्भीक भिभिनाहट को सुनकर मैं बड़ा आदमी थरथर कांपने लगा। यह हाहाकारी दृश्य देखकर  तभी एक चूहे ने अट्टहास किया और मुझ बड़े का मजाक उड़ाता हुआ बोला-अबे बड़े, अभी भी तेरे कान नहीं हुए खड़े। हमारे समुदाय में भी एक बार एक सीनियर सिटीजन चूहे ने ऋषि से बड़े होने का वरदान ले लिया था। शेर बन कर उसकी जो मट्टी-पलीत हुई उसके बाद से हम चूहों ने फिर कभी ऐसी गलती नहीं की। आज जंगल के शेर खत्म हो गए और हम चूहेदानियों का मजाक उड़ाते हुए सपरिवार आदमी की छाती पर पिकनिक मना रहे हैं। मेरी मान और मौका देखकर तू भी छोटा हो जा। कोई फायदा नहीं है फालतू के बड़े होने में। बड़े लोगों के महल फ्लैटों में तब्दील हो गए हैं। कोठियां कोठों में बदल गई हैं। हमारी चुहियाएं खुश हैं कि तमाम बुलडोजरों के आतंक के बावजूद हमारे बिल सुरक्षित हैं। क्योंकि इन्हें कोई ठेकेदार नहीं बनाता है। अरे हम आत्मघाती चूहों से जब भी आदमी ने कोई हरकत की है हम चूहों ने मर के प्लेग फैला दिया। बस्तीकी बस्तियां उजाड़ दीं आदमी की। आदमी हमारा क्या बिगाड़ पाया। आदमी विशाल है, हम लघु हैं। और ये तो तुम भी जानते होगे कि लघुता से प्रभुता मिले,प्रभुता से प्रभु दूर। आज तक आदमी को प्रभु नहीं मिला। वो तो अभी तक इस बहस में उलझा हुआ है कि ईश्वर होता भी है या नहीं।  उस बेचारे के लिए तो उसका मालिक या बॉस ही प्रभु होता है। मगर हम लोगों को तो सचमुच में गणेशजी की कंपनी  खानदानी विरासत में मिली हुई है।  इसलिए हे बड़े तुम्हें मेरी एडवाइसात्मक सलाह है कि मौका देखकर तुम भी अपना ये फालतू का बड़प्पन छोड़ दो। ठीक वैसे ही जैसे कि मौका देखकर एक चतुर नेता अपनी पार्टी छोड़ देता है। याद रखो लघुता से प्रभुता मिले। आदमी जितना चोटा हो जाता है वह उतना ही बड़ा पद हथियाता है। गांधीजी ने लघु उद्योग को काफी बढ़ावा दिया। वो लघुता की इंपोर्टेंस समझते थे। सूट छोड़कर लंगोटी में आ गए। और राष्ट्रपिता बन गए। मल्लिका शेरावत ने भी लघुता का महत्व समझा। फटाक से स्टार बन गईं। लॉंग-ल़ांग एगो  एक हनुमानजी ने लघुमा सिद्धि से अपने को छोटा किया और सुरसा के मुंह में घुस गए। लघुता से प्रभुता मिले। और जब प्रभु ही लघु हो जाएं तो तय है कि उन्हें परम प्रभु का पद मिलना ही था. सुरसा मर गई। क्योंकि उसे छोटे होने की टेक्नीक आती ही नहीं थी। वह वैसी ही मारी गई जैसे कि छोटे से चरखे से फिरंगियों का राज खेत रहा। औरंगजेब लघुभ्राता था। उसने अपने सारे बड़े भाइयों को अपने छोटेपन से निबटा दिया और बादशाह बन बैठा। लघुता से प्रभुता मिले। सुग्रीव लघु था बड़े भाई बाली के प्राणभंजन कर उसने मनोरंजन भी किया और उसकी पोस्ट भी हथिया ली। लघुता का महत्व समझकर ही विष्णुजी ने वामन अवतार धारण किया और राजा बलि के साम्राज्य को सिर्फ तीन पगों में नाप लिया। लघु विष्णु से नप गया बाली। इसलिए भैया बड़े होना है तो छोटेपन पर उतर आओ। बड़ा हुआ तो क्या हुआ। कौन परवाह करता है बड़े की। और जब छोटे बड़े हो जाएंगे तो बड़े अपने आप छोटे हो जाएंगे। छोटे हमेशा बड़े के विलोमानुपाती होते हैं। इत्ता छोटा-सा गणित है जो बड़ों को समझ नहीं आता। अरे,जो जितना बड़ा होगा उसके उतने ही बड़े झंझट। सूरज-चांद को ग्रहण लगता है। मोमबत्तियों और सिगरेट लाइटरों को नहीं। राहू-केतु छोटे हैं इसलिए बड़े से पंगा लेते हैं। छोटों से उलझकर कौन अपनी बेइज्जती खराब कराए। इज्त तो उनकी वैसे भी नहीं है। इसलिए हे बड़कूराम तो छोटूराम हो जा। छोटू हुआ तो सर बनेगा,बड़ा हुआ तो सर कटेगा। मेरी नहीं तो कवि बिहारी की मान ले, जो कह गए हैं कि-देखन में छोटे लगें,घाव करें गंभीर। छोटे अस्त्र-शस्त्रों से वे महाकवि बन गए।  बड़े का वार तो हर छोटा झेल जाता है मगर छोटे के बार से कथित बड़ा शर्तिया निबट जाता है। एक नन्ही-सी लघुशंका अगर अपनी जिद पर मचल जाए तो बड़ों-बड़ों की पेंट गीली हो जाए। और अगर उसकी खोपड़ी घूम जाए तो आदमी डायलेसिस पर सिधार जाता है। लघुता की प्रभुताओं की कथाएं अनंत हैं। लघु अनंत,लघु कथा अनंता।
अब देखिए न आदमी को सुधारने और कभी-कभी बिगाड़ने में बड़े-बड़े शास्त्रों और ग्रंथों पर एक छोटी-सी पीली पन्नीवाली नन्ही-सी पॉकेट बुक कितनी भारी पड़ती है,इसे कहने की क्या जरूरत है। आप सब शरीफ लोग है। इसके शरारती इनर्जी लेबिल से आप सब अच्छी तरह से बाकिफ हैं। सूटकेस से लेकर मर्डर केस तक एक छोटी-सी चूक समझदार आदमी के उज्ज्वल भविष्य को चौपट कर देती है। एक चींटी-सी गलती के आगे वह बेचारा हाथी ही साबित होता है। अब देखिए न भारतीय दंडसंहिता में शादी कोई अपराध नहीं है। मगर एक जरा-सी ये चूक कितनी भारी पड़ती है, अगर आप शादीशुदा हैं तो बुरी तरह जानते ही होंगे और कुंआंरे हैं तो एक दिन अच्छी तरह से जान जाएंगे। अपुन खाली-पीली काहे को अपना टाइम खोटा करें। और अगर आप अपने को छोटा मानते हैं तो इस गलती को छोटा कतई न समझें। और इसे बड़ा मानकर तुरंत और छोटे हो जाइए। क्योंकि एक छोटेपन में बड़ी-बड़ी गलतियां बड़े करीने से दुबक जाती हैं। छोटा होना ही हमेशा परम प्रोफिट का सौदा रहा है। बड़ों की लुटिया तो चुल्लूभर पानी में ही डूब जाती है। उस प्रचंड लघुवंशी की विराट बातें सुनकर मेरे शरीर में छोटेपन का जो अदम्य संचार हुआ, उसके सुफल से लघुवंशीजी ससम्मान अस्पतालवासी होकर मोक्ष को प्राप्त हुए और मैं व्यंग्य लेखक बनकर छोटेपन की संस्कृति का महा प्रचारक बन गया। एक छोटे आदमी ने  मेरी मौलिक जिंदगी में कितना बड़ा काम किया,उसके लिए आभार व्यक्त करने का बड़ा काम मैं कतई नहीं करूंगा क्योंकि अब मैं बाकायदा आईएसआई मार्क्ड छोटा आदमी बन चुका हूं।
आई-204,गोविंदपुरम,गाजियाबाद

Wednesday, December 1, 2010

मनुष्य होते हुए भी आस्तीन के सांप


 हास्य-व्यंग्य-
रिश्तों का सुपरपावर देश भारत
पंडित सुरेश नीरव
ये कितनी नाइंसाफी है कि बेचारा आदमी एक और उसकी जान को रिश्ते अनेक। बेचारा कहां जाए। और कितने रिश्ते निभाए। एक को पकड़ो तो दूसरा मेंढक की तरह उछलकर दूर खड़ा हो जाता है। हम यह तो फिजूल ही कहते हैं कि हमारा देश कृषि प्रधान देश है। असलियत में तो हमारा देश रिश्ताप्रधान देश है। रिश्तों में दुनिया का इकलौता सुपरपावर देश। पहला रिश्ता देश से। देश हमारी माता है। भारत माता। मदर इंडिया। गाय हमारी माता है। नदियां हमारी माता है। जय गंगा मैया की। जय जमुनाजी की। और-तो-और हमने बीमारियों से भी अंतरंग रिश्ते बनाते हुए चेचक को भी माता कहकर अपनी रिश्ताबनाऊ क्षमता का विश्व में कीर्तिमान स्थापित कर रखा है। एक फिल्मी गीतकार ने तो- गंगा मेरी मां का नाम बाप का नाम हिमालय कहकर अपने खानदान का पूरा बायोडाटा ही सार्वजनिक कर के अपने खानदानी होने का परिचय दिया हैं। वरना तो हमारे यहां मौके के मुताबिक गधे को भी बाप बनाने की गौरवशाली परंपरा रही है। जो आज तलक पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से बिलकुल अछूती है। यह हमारे लिए राष्ट्रीय अभिमान की बात है। चलो एक तो ऐसी परंपरा है जिस पर पश्चिमी सभ्यता का साया नहीं पड़ा। हो सकता है गधे के फादरीकरण प्रतियोगिता में हम से पराजित पश्चिमी देश हमारे महान देश का मज़ाक उड़ाते हुए यह कहने लगें कि कि इंडिया में तो लोग गधे को ही बाप बनाते हैं तो हम इस कुप्रचार का मुंह तोड़ जवाब देते हुए पूछेंगे कि गांधीजी को बापू क्या तुम्हारे बाप ने बनाया था। अरे वो क्या समझें हमारे रिश्तों की पवित्रता को। अरे पवित्र आत्मा थे हमारे बापू। रोज भगवान का भजन करते हुए कहते थे- वैष्णव जन तो तैने कहिए जो पीर पराई जाने रे। कैसी करुणामयी प्रार्थना करते थे। जो भी प्रार्थना-पूजा करता है,हम भारतीय तो तड़ से उसे बापू कह डालते हैं। हमारी इस उदार परंपरा के कारण ही आज कई महात्मा चैनलों पर भजन-प्रवचन करके बापू  की केटेगिरी में आ गए हैं। इसलिए हम फिरंगियों के इस आरोप को सिरे से खारिज करते हैं कि हम सिर्फ गधों को ही बाप बनाते हैं। तमाम वेरायटी के बापू आज भी हमारी मार्केट में घूम रहे हैं। करे मल्टीनेशनल कंपनियां हमारा मुकाबला। मैं ये सोचकर हैरत में हूं कि इन फिरंगियों की सुई केवल पिताजी के रिकार्ड पर ही क्यों रुक गई। खुद इन फिरंगियों को अपने ऑरीजनल फादर का तो पता होता नहीं है गोया हर चर्च में इनका एक फादर जरूर होता है। जितने चर्च उतने फादर। यह हमारी बापू संस्कृति का ही प्रभाव है,जो इनके सर चढ़कर बोल रहा है। चलो फादर-प्रतियोगिता में इन्होंने कूद कर फटें में टांग अड़ाई है मगर हमारा मुकाबला ये क्या खाकर करेंगे। हमारे यहां राष्ट्रीय स्तर पर चाचा हैं,ताऊ हैं,ताई हैं,काकी हैं,काका हैं,काके हैं। एक अदद चाची की कमी थी सो कमल हसन ने चिकनी चाची बनाके इस कमी की भी राष्ट्रीय आपूर्ति कर दी। बाबाओं की तो हमारे देश में भरमार है ही। इनकी जनसंख्या तो अब इतनी ज्यादा हो गई है कि देश में आदमी कम और बाबा ज्यादा हो गए हैं। फिर भी जिन सफाई पसंदों को ये दाढ़ी-मूंछवाले लेआउट के बाबा पसंद न हों तो उनके लिए बालीवुड की ओर से संजू बाबा का तोहफा पेश है। सच तो यह है कि राजनीति और फिल्म इंडस्ट्री ने देश के हरेक रिश्ते का राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व करके हमेशा रिश्तों की फसल को सूखने से बचाया है। यहां अम्माएं भी हैं,दीदीयाएं भी हैं और बहनजीआएं भी इफरात में एवलेबल हैं। रिश्तों की सेल लगी हुई है। कुछ माल डिस्काउंट पर भी उपलब्ध है। राष्ट्रपिता और राष्ट्रपति के सम्मानित ओहदों के अलावा चाचा नेहरू,देवीलाल ताऊ,शालिनी ताई, काका हथरसी, जयललिता अम्मा,ममता दीदी, लता दीदी, मायावती बहनजी सभी रिश्ते तो मौजूद हैं। बस एक पत्नी का रिश्ता ही रह गया था जिसका कि राष्ट्रीयकरण नहीं हो सका है। इंदिराजी ने राष्ट्रीयकरण की मुहिम छेड़ी तो थी मगर वह बैंकों पर ही आकर रुक गई। खैर..परंपरा प्रेमी और प्रगतिशील दोनों की मिलीजुली कोशिशों से पत्नियों की कई वेरायटी  अब प्रकाश में आईं हैं। मसलन-धर्म पत्नी,पत्नी,उप-पत्नी,प्रवासी-पत्नी, गुप्त-पत्नी और दफ्तरी- पत्नी। पत्नियों की इतनी नस्लें पैदा करके हम भारतीयों ने अपनी फर्स्टहैंड प्रतिभा का परिचय देकर इस मामले में भी विश्व को चमत्कृत कर दिया है। पत्नी की संख्या बताकर हम इन लोगों को और शर्मिंदा नहीं करना चाहते। लोकिन बात चल निकली है तो हता ही देते हैं कि ब्रह्मचर्यप्रधान इस देश में सोलहहजार एकसौआठ पत्निया रखने  का विश्व रिकार्ड आज तक कायम है। इस प्रतियोगिता में स्वर्ण तो क्या कोई लोह पदक भी हमारे सामने नहीं जीत सका है। फिर भी यदि कुछ नकचढ़ों को यह शिकायत हो कि पत्नी रही तो हर हाल में निजी संपत्ति ही तो उनके संज्ञान के लिए हमारे यहां मिडवाइफ की भी तदर्थ व्यवस्था है। वे चाहें तो अपनी पत्नी को इस संबोधन से पुकारकर अपनी प्रचंड सामाजिकता का सबूत दे सकते हैं। हम किसी के साथ कोई सौतेला व्यवहार नहीं करते। एक बार मिल तो लें। निराश न हों। रिश्ते-ही-रिश्ते। गर्व से कहो हम भारतीय हैं। अस्पताल की सारी नर्सें हमारी सिस्टर हैं। इन जगत सिस्टोरों के निजी पति भी सार्वजनिकतौर पर इन्हें सिस्टर ही कहकर बुलाते हैं। यह है हमारा बहननुखी भारतीय चिंतन। जिसे हम  गाली-गफ्तार के दौर में भी याद करना नहीं भूलते। अब बात सिस्टरों के भाईयों की। हमारे देश में सुपर स्टार भाई तो अंडरवर्ड में ही पाए जाते हैं। और इन भाईयों की प्रगाढ़ रिश्तेदारी देखिए कि हमारे  देश में सब चोर-चोर मौसेरे भाई होते हैं। रिश्ते की कैसी नाजुक डोर से बंधे हैं सारे चोर भाई। इन भाइयों के अलावा भैया और भइयन भी हमरे पूरब में बहूत होते हैं। लोगों की भावुकता का ही कारण हैं कि लोगों ने अच्छे-खासे राहुल गांधी को भी भैया बना डाला हैं। ताउओं की फसल वैसे तो हरियाणा मे होती है मगर बछिया के ताऊ देश में कश्मीर से कन्याकुमाकी तक फैले हुए हैं। मगर ये किस बछिया के ताऊ होते हैं इसका उल्लेख हम अकेले में करेंगे। कारण ये कि बछिया पब्लिसिटी बिव्कुल नहीं चाहती। इसीलिए वेद,पुराण कहीं पर भी इसे सार्वजनिक नहीं किया गया। बछिया के ताऊ से थोड़ी भिन्न लोमड़ी के फूफा की दुर्लभ प्रजाति भी हमारे देश में सौभाग्य से अभी भी पायी जाती है। अब एक रिश्ता ऐसा भी है जिसे हमारे देश के होनहार पट्ठों ने उल्लू  को डैडी के रूप में गोद लेकर ईजाद किया है। और अपने अदम्य पक्षीप्रेम का भी परिचय दिया है। वैसे ऐसी मान्यता है कि जो लोग गधे को बाप बनाने से चूक जाते हैं वही कालांतर में उल्लू को अपना डैडी बनाकर मनुष्यता में पिता के एक नए गोत्र का गठन करते हैं। इन रिश्तों की नुमाइश में मामाओं को देखना-दिखाना भी हम जरूरी समझते हैं। मामाओं के मामले में हम भारतीय बहुत भाग्यशाली हैं जहां कंस और शकुनी-जैसे मामाओं ने अवतार लेकर अपनी दिव्यलीलाओं से हम भारतवासियों को कृतार्थ किया। ज़रा सोचिए अगर मामा कंस नहीं होते तो भांजे कृष्ण का क्या फ्यूचर होता। और अगर शकुनी मामा नहीं होते तो महाभारत करने की औकात भांजे दुर्योधन की थी क्या। वैसे असफल प्रेमी को प्रेमिका के बच्चों द्वारा मामा कहे जाने का भी प्रचलन हमारे देश में प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। भारतीय बच्चों के जगत मामा चंदा मामा के लफड़े तो इतने बारीक हैं कि बच्चों के मामा फटाक से उनकी मम्मियों के करवाचौथ के चांद भी बन जाते हैं। मैंने अपनी चांद खुजा-खुजाकर गंजी कर ली मगर  चंदामामा घोटाला-लफड़ा समझ में नहीं आया। इस संगीन प्रकरण पर विद्वानों की नजर अभी तक नहीं गई है। अफसोस है कि इस मामले में सारे-कगे-सारे पुरुष मामा ही सिद्ध हुए। भारत के कई भूभागों में बंदर को भी मामा कहने का रिवाज़ है। ये जरूरी नहीं कि हर मामा कंस और हर मामी राधा हो। मामा-मामियों की अन्य प्रजातियां भी देश में देखी गईं हैं।  अब बात मौसियों की। मौसी तो मौसी होती हैं। कोठी से कोठे तक यह सर्वत्र पायी जाती हैं। आजकल किन्नरों को मौसी कहने का  भी लेटेस्ट फैशन चल निकला है। अब यदि मनुष्य योनि की मौसियों से मन न भरे तो म्याउं-म्याउं कहकर बिल्ली मौसी भी अपनी हाजिरी दर्ज कराने के लिए आपकी सेवा में हाजिर हैं। जहां तक बुआओँ का सवाल है तो प्रहलाद की बुआ के अलवा इंदिराजी की बुआ विजयलक्ष्मी पंडित का ही इतिहास में उल्लेख मिलता है बाकी बुआएं तो भतीजे-भतीजियों के लिए आंदोलन की ही वस्तु रही हैं। भतीजे-भतीजिया- बुआ री बुआ...दे...दे पुआ की इंकलाबी मांग कर यह सिद्ध कर देते हैं कि बुआ नामक वस्तु हमेशा मेनेजमेंट का ही भाग होती है। और उन्हें उनका पूरा हक नहीं देती है। भाभी और देवर के संबंधों को पता नहीं किन बाहरी शक्तियों ने प्रदूषित किया है पर इतिहास के मुताबिक भाभियों का रिश्ता बड़ा ही पवित्र होता है। चाहे लक्षमण की भाभी सीता हो,चाहे भगतसिंह की मुंहबोली दुर्गा भाभी हो या सलमान की मलाइका भाभी। सभी भाभियां वीआईपी हैं। वैसे भाभी होती ही वीआईपी हैं। क्योंकि देवर का सारा वजूद ही भाभियों पर टिका होता है। भाभी न हो तो देवर जिंदगीभर भाई-का-भाई ही रह जाता है। और भाई होना कोई मजाक बात नहीं है मगर  किसी को भाई कह देना गंभीर मजाक जरूर है। भाई का संबोधन इतना हत्यात्मक है कि अगर कोई कन्या किसी छैलाबाबू को भाई कह दे तो वह अपनी निजी पर्सनल आत्महत्या कर लेगा या फिर उस कन्या का सार्वजनिक वध करने पर उतारू हो जाएगा।  कुछ स्वाभिमानी भाई तो सहर्ष आत्महत्या कर भी लेते हैं। भाभी का देवर होना उसकेलिए हेल्प लाइन है। भाई का भाई के रूप में पैदा होना तो एक दुर्घटना है,मजबूरी है मगर स्वेच्छा से भाई तो गुजरात में भी शायद कोई होता हो। भले ही मरते दम तक मोटा भाई, छोटा भाई, और मीराबैन,दीपा बैन-जैसे संबोधनों को ढोने को वे अभिषप्त हों। मन से भाई की टाइटिल  किसी भाई को नहीं भायी। और भाई-भाई को तो बिल्कुल नहीं भायी। रावण-विभीषण,कौरव-पांडव,बाली-सुग्रीव सभी इसी झल्लाहट में खीझते रहे। चाहे किसी भी सभा का सभाई हो,भाई आखिर भाई ही होता है। और मौका पड़ते ही वह अपने भाई होने का सबूत हर हाल में दे ही देता है। औरंगजेब ने अपने भाइयों को तुरंत सेवा के तहत जन्नत की सैर करा के अपने भातृत्व प्रेम की जो अनुपम मिसाल कायम की वह भाइयों की दुनिया में इतिहास बन गई। सौभाग्य से हमें आज भी राहुल और वरुण दो भाई मिले हुए हैं। सारे देश की निगाहें इन दोनों भाइयों पर टिकी हुई हैं कि कब ये अपने भाई होने का सबूत देते हैं। रिश्तों का ऐसा विविधभारती कार्यक्रम, है विश्व के किसी और देश में। हो भी कैसे सकता है। हमारे यहां रिश्ते-तो-रिश्ते  खुद लोग ऐसी टेक्नीक से पैदा होते हैं कि विश्व में कोई हमारा मुकाबला नहीं कर सकता। जहां धरती से सीता,खंभे से नरसिंह अवतार और घड़े से अगस्त मुनि पैदा हो जाते हैं। और रिश्तों का तो हाल यह है कि अगर धोखे से आदमी की नजर में कोई सांप आ जाए और वह उसकी आस्तीन की नागरिकता प्राप्त करले तो वह अपने आस्तीन के मालिक से ताउम्र दोस्ती का रिश्ता निभाता है। यह है हमारे देश में रिश्तों का सम्मान। रिश्तों में सबसे पवित्र रिश्ता आस्तीन के सांप का ही होता है। जिसे हर भारतीय दूध पिला-पिलाकर पालता-पोसता है। आस्तीन का सांप। गद्दारी में फुर्तीला और वफादारी में आलसी। दुनिया का और कोई देश इस मामले में हमसे टक्कर ले ही नहीं सकता। क्योंकि आस्तीन के सांप सिर्फ हिंदुस्तान में ही पाए जाते हैं। जंगल से लेकर शहर तक,दफ्तर से लेकर घर तक, किसी-न-किसी रूप में ये हमेशा बिन मांगी मुराद की तरह हर भारतीय को ईश्वर के वरदान की तरह उपलब्ध है। और सबसे गौरव की बात यह है कि ऐसे इच्छाधारी सिद्ध सिर्फ भारतीय ही होते हैं जो जब चाहें मनुष्य होते हुए भी आस्तीन के सांप बन जाएं। हम आभारी हैं इन आस्तीन के सांपों के जिनकी बदौलत हम एक गौरवशाली इतिहास के मालिक बने। और जिनकी दूरदृष्टि और उदार विचारधारा के कारण हमें अंग्रेजों और मुगलों को अपने देश का अतिथि बनाने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। अगर ये नहीं होते तो हम वसुधैव कुटुंबकम और अतिथि देवो भव-जैसे महावाक्यों को कैसे सही सिद्ध कर पाते। कैसे हम दुनिया को मुंह दिखाते। हमारे इतिहास को हर बार इन्हीं आस्तीन के सांपों ने एक नई दिशा दी है। हमारा तो इतिहास ही परिवार और रिश्तों की बुनियाद पर खड़ा है। पहले राजशाही में भी परिवार थे जो राज्य करते थे। आज प्रजातंत्र में भी कुछ परिवार हैं जो राज्य करते हैं। बाकी का रिश्ता सिर्फ प्रजा का है। पहले भी यही था। हम लोग रिश्तों को कमीज की तरह नहीं बदलते। यही तो हमारे रिश्तों की ताकत है। अगर आपसे हमारा इस जन्म में कोई डाइरेक्ट रिश्ता नहीं बनता है तो भी हम यह कहकर कि मेरा तुझसे पहले का नाता है कोई आपसे पिछले जनम की डायरेक्टरी से जोड़कर,खंगालकर कोई रिश्ता बना ही लेंगे। क्योंकि रिश्ते हमारी पावर हैं। और इन रिश्तों की बदौलत ही हम दुनिया में सुपर पावर हैं।
आई-204, गोविंदपुरम,गाजियाबाद
मो.9810243066

Tuesday, November 30, 2010

इक्कीसवीं सदी के प्रेम

हास्य-व्यंग्य-
-डॉ. अशोक गौतम
वे सज धज कर यों निकले थे कि मानो किसी फैशन शो में भाग लेने जा रहे हों या फिर ससुराल। बूढ़े घोड़े को यों सजे धजे देखा तो कलेजा मुंह को आ गया। बेचारों के कंधे कोट का भार उठाने में पूरी तरह असफल थे इसीलिए वे खुद को ही कोट पर लटकाए चले जा रहे थे। पोपले मुंह पर चिपके होंठों पर अपनी घरवाली चमेली की विवाह के वक्त की लिपस्टिक पोते। रहा न गया तो टाइम पास करने को पूछ लिया, ‘भैया जी! इस कातिलाना अदा में कहां जा रहे हो? क्या मेनका को घायल करने का इरादा है?’मेरे मुंह से मेनका का नाम सुना तो घिसी पिटी उनकी नसों में एक बार फिर सनसनाहट सी हुई।
कुछ कहने के लिए वे कुछ देर तक खांसी को रोकते रहे। जब उनसे खांसी वैसे ही नहीं रूकी जैसे सरकार से महंगाई नहीं रूक रही तो चुटकी भर कफ को कुछ देर तक रूमाल में बंद करने के बाद बोले, ‘समाज कल्याण करने जा रहा हूं।’
‘तो अब तक क्या किया??’
‘समाज को खाता रहा।’एक बात बताइए साहब! ऐसा हमारे समाज में क्यों होता है कि बंदा नौकरी में रहते हुए तो समाज को नोच नोच कर खाता है और रिटायर होने के तुरंत बाद उसके मन में समाज के प्रति कल्याण की भावना कुकरमुत्ते की तरह पनपने लगती है? उसका मन समाज सेवा के लिए तड़पने लगता है। ……पर फिर भी मन को बड़ी राहत महसूस हुई कि चलो जिंदगी में कुछ आज तक मिला हो या न पर एक बंदा तो ऐसा मिला जो सच बोलने की हिम्मत कर पाया। वर्ना यहां तो लोग चिता पर लेटे लेटे भी झूठ बोलना नहीं छोड़ते।
‘तो समाज कल्याण के अंतर्गत क्या करने जा रहे हो? दूसरों की पत्नियों से प्रेम या फिर अपनी बेटी की उम्र की किसी गरीब की बेटी से विवाह।’समाज सेवकों के एजेंडे में बहुधा मैंने दो ही चीजें अधिकतर देखीं।
‘कुछ गोद लेने जा रहा हूं।’कहते हुए बंदे के चेहरे पर कतई भी परेशानी नहीं। उल्टे मैं परेशान हो गया। यार हद हो गई! रिटायरमेंट से पहले तो बंदा रोज पूरे मुहल्ले को परेशान करके रखता ही था पर ये बंदा तो रिटायरमेंट के बाद भी कतई ढीला न पड़ा।
‘इस उम्र में आपके पास गोद नाम की चीज अभी भी बची है??? गोद में मंहगाई को हगाते मूचाते क्या अभी भी मन नहीं भरा?’बंदे की हिम्मत की आप भी दाद दीजिए।
‘तो अनाथ आश्रम जा रहे होंगे?’
‘नहीं!!’कह वे छाती चौड़ा कर मेरे सामने खड़े हो मुसकराते रहे। हालांकि उनके पास छाती नाम की चीज कहीं भी कतई भी नजर न आ रही थी।
‘तो किसी रिश्ते दार का बच्चा गोद लेने जा रहे होंगे?’
‘नहीं। चिड़ियाघर जा रहा हूं।’
‘चिड़ियाघर में आदमी के बच्चे कब से गोद लेने के लिए मिलने लगे?’
‘जबसे अनाथ आश्रमों के बच्चों को अनाथ आश्रम के संरक्षक खा गए। उल्लू गोद लेने जा रहा हूं। सोच रहा हूं जो नौकरी में रहते न कर सका वो अब तो कर ही लूं। नौकरी भर तो औरों की गोद में बैठा रहा।’
‘आदमियों ने बच्चे क्या हमारे देश में पैदा करने बंद कर दिये जो तुम…..’
‘भगवान हमारे देश को बच्चे देना बंद भी कर दे तो भी हम बच्चे पैदा करने न छोड़ें। बच्चे गोद लेना तो पुरानी बात हो गई मियां! अब तो विलायती कुत्ते, उल्लू, गीदड़, मगरमच्छ, गोद लेने का युग है। अपने को रोटी मिले या न मिले, पर विलायती कुत्तों को आयातित बिस्कुट खिलाने में जो परमसुख की प्राप्ति होती है, मुहल्ले में जो रौब दाब बनता है उससे सात पुश्तोंह के चरित्र सुधर जाते हैं। मुहल्ले में दस में से पांच ने कुत्ते गोद ले रखे हैं। मैंने सोचा, जरा लीक से हट कर काम हो तो मरते हुए समाज में नाम हो सो उल्लू गोद लेने की ठान ली।’कह वे मंद मंद कुबड़ाते मुसकराते हुए आगे हो लिए गोया बीस की उम्र में कमेटी के पार्क में प्रेमिका से मिलने जा रहे हों।
‘मियां हो सके तो इंसानियत को गोद लो। हो सके तो प्रेम के असली रूप को गोद लो तो यह छिछोरापन कर परलोक सुधारने का दंभ न करना पड़े।’पर वहां था ही कौन जो मेरी आवाज पर ध्यान देता।
प्रवक्ता से..