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Wednesday, December 22, 2010

रेडियोएक्टिव साहित्यकार सिर्फ रेडियो में नोकरी लगने के बाद ही सक्रिय होता है


हास्य-व्यंग्य-
रेडियोएक्टिव साहित्यकार
पंडित सुरेश नीरव
अपने लपकू चंपक जुगाड़ीजी आजकल रेडियो एक्टिव साहित्यकार हो गए हैं। यूरेनियम-जैसे रेडियो एक्टिव पदार्थ में और रेडियोएक्टिव साहित्यकार में सिर्फ इतना फ़र्क होता है कि रेडियोएक्टिव साहित्यकार हमेशा अपनी दम पर सक्रिय रहता है वहीं रेडियोएक्टिव साहित्यकार सिर्फ रेडियो में नोकरी लगने के बाद ही सक्रिय होता है। और जैसे ही रेडियो की नौकरी से हटता है या समारोहपूर्वक हटाया जाता है,वह निर्जीव हो जाता है। गोबर से निकले गुबरैले की तरह। कुछ-कुछ इसी नस्ल के जीव हैं महोदय- लपकू चंपक जुगाड़ीजी। आजकल अपनी लगन में मगन लपकू चंपक जुगाड़ीजी ग्रीक कथाओं के एटलस की ज़िंदगी जी रहे हैं। बिलकुल एटलस की तरह। जैसे उसके कंधे पर पृथ्वी टिकी है लपकू चंपक जुगाड़ीजी के कंधों पर, उसी तर्ज पर हिंदी का संसार धरा हुआ है। साहित्य के भार से चरमराते और ऐसी विषम परिस्थिति में भी मुस्कुराते लपकू चंपक जुगाड़ीजी हिंदी के विकास के लिए पूरे बलिदानी भाव से हथेली पर प्राण लिए सपरिवार पिकनिक मनाते घूम रहे हैं। जब से रेडियो की नौकरी में आए हैं तब से लपकू चंपक जुगाड़ीजी पूरी तरह से कविया गए हैं। उन्हें कविता करने से रोक भी कौन सकता है। अब कविता करना लपकू चंपक जुगाड़ीजी का कुर्सी-सिद्ध अधिकार है। एक तो कवि ऊपर से रेडियो की नौकरी। यानी कि करेला और नीम चढ़ा। मजाल है कहीं,कोई कवि सम्मेलन लपकू चंपक जुगाड़ीजी के बुलाए बिना हो जाए। गली छाप दोयम दर्जे के कवियों के अखिलभारतीय कप्तान की हैसियत हथियाकर बैठे हैं- लपकू चंपक जुगाड़ीजी। हर ऐरे-गैरे कवि को अखिल भारतीय बनाने का ठेका है, लपकू चंपक जुगाड़ीजी के पास। जिन्हें अखिल भारतीय बनना होता है,वह लपकू चंपक जुगाड़ीजी को ऐसे घेरे रहते हैं-जैसे मरे हुए जानवर को कुत्ते और गिद्ध घेरे रहते हैं। लपकू चंपक जुगाड़ीजी हिंदी के विकास के लिए बहुत गंभीर हैं। इसलिए पूरी सतर्कता के साथ अपने कार्यक्रमों में सिर्फ उन्हीं को बुलाते हैं,जो अपने-अपने दफ्तर में हिंदी-हिंदी का खेल खेलते रहते हैं। हिंदी के इन सरकारी खिलाड़ियों में लपकू चंपक जुगाड़ीजी इतनी रुचि यूंहीं भावुकतावश नहीं दिखाते हैं। असल में हिंदी पखवाड़े में यही लोग अपने दफ्तर में लपकू चंपक जुगाड़ीजीजैसे घोर विद्वानों को बुलाकर हिंदी का भविष्य उज्ज्वल करने में कई सालों से बुरी तरह से जुटे हुए हैं। हिंदी का भविष्य इनसे उज्ज्वल होगा या नहीं इस पर विश्वासपूर्पक कुछ कहना एक कट्टरपंथी फतवा ही होगा, हां पूरी हुंकार के साथ ये जरूर कहा जा सकता है कि हिंदी के नाम पर लपकू चंपक जुगाड़ीजी-जैसे चिरकुटों की दुकान जरूर इन प्राणियों की बदौलत चल जाती है। लपकू चंपक जुगाड़ीजी खुद और खुद की मंडली की बदौलत ही साहित्यकार हैं। लपकू चंपक जुगाड़ीजी रेडियो एक्टिव साहित्यकार हैं। इसलिए रेडियों की एवज में सरकारी दफ्तरों के आयोजन वे पूरी आयोजनखोर निष्ठा से हथियाते हैं। जो लोग इन्हें बुलाते हैं बदले में वे भी रेडियो पर जाकर गा-बजा आते हैं। ये है रेडियो के जरिए प्रतिभाओं का सांस्कृतिक आदान-प्रदान। तू मुझे बुला मैं तुझे बुलाऊं के इस सदभावनापूर्ण वातावरण में हिंदी खूब फल-फूल भी रही है। रेडियो का आविष्कार हुआ ही इस काम के लिए था। मार्कोनी को मालुम था कि बिना रेडियो के हिंदी का विकास हो ही नहीं पाएगा। हिंदी पर बहुत बड़ा उपकार है मार्कोनी का। और हमारे लपकू चंपक जुगाड़ीजी ने तो इस रेडियो को मिली-जुली बदनीयती का एक पवित्र मंदिर बना दिया है। जहां जुगाड़ चालीसा के भजन और तिकड़मपचीसी के अखंड कीर्तन से लपकू चंपक जुगाड़ीजी के भक्तों की मनोकामनाएं शर्तिया पूरी होती हैं। रेडियो की बदौलत लपकू चंपक जुगाड़ीजी की साहित्य में जूती और तूती दोनों बोल रही हैं। जूती-तूती की कैसी दुर्लभ जुगलबंदी साध ली है,हमारे लपकू चंपक जुगाड़ीजी ने। वैसे कविजी गांधीवाद की हिंसक मुद्रा का ऐसा दुर्लभ  एंटीक आयटम हैं कि आंख मारने को हिंसा और किसी के पैसा मारने को ये नितांत अहिंसक कर्म मानते हैं। साहित्यिक धमक ऐसी कि भक्तिकाल में अगर टहलने चले जाएं तो वहीं वीरगाथाकाल की ऋतु आ जाए। लपकू चंपक जुगाड़ीजी का शिल्प है ही ऐसा रहस्यवादी। आज तक साहित्य के विशेषज्ञ यह तय नहीं कर पाए कि लपकू चंपक जुगाड़ीजी हैं किस रस के कवि। कुछ लोग तो उन्हें इस जटिलता के कारण कवि ही नहीं मानते। उनका कहना है कि सर्दी में ठंडे पानी से नहाते समय यदि कोई राम-राम कहता है तो वह भक्त प्रहलाद थोड़े ही हो जाता है। और रामलीला में राम का पार्ट अदा करनेवाला कोई सच्ची-मुच्ची में राम थोड़े ही हो जाता है। ऐसे ही रेडियो में नौकरी करते हुए अगर कोई कविता-मविता करने लगे तो सच्ची का कवि थोड़े ही हो जाता है। उनका दावा है कि रेडियो में रहते हुए लपकू चंपक जुगाड़ीजी कितनी भी कविताएं भांज लें,रिटायरमेंट के बाद लपकू चंपक जुगाड़ीजी  की जिंदगी की पोटली में से चंद तुकबंदियों के चीथड़ों के अलावा और कुछ बरामद नहीं होनेवाला। मूढ़ हैं सब। प्रतिभा को अंडर एस्टीमेट करते हैं। आज की डेट में लपकू चंपक जुगाड़ीजी रेडियो की तलवार से कलम की लड़ाई और चौंचक कमाई में पूरी तरह से रत हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी लपकू चंपक जुगाड़ीजी बहुमुखी हों या न हों पर दसमुखी जरूर हैं। रेडियो की स्वर्ण लंका के इकलौते लंकेश। स्त्रीविमर्श के लिए जिनकी एक अलग से मोबाइल अशोक वाटिका भी है। बड़ा आतंक है- लपकू चंपक जुगाड़ीजी का। लतीफों का गंभीर दीवान और ग़ज़लों के चुलबुले रैपर में लिपटा एक जानलेवा आयटम हिंदी साहित्य को रेडियो के सौजन्य से ही सहज उपलब्ध हुआ है। जो किसी को भी असहज करने के लिए काफी है। हमें भरोसा है,पूरा भरोसा है कि अपनी दुर्दांत प्रतिभा के बूते पर लपकू चंपक जुगाड़ीजी  साहित्य में अवश्य अमर होकर ही मानेंगे। मगर अमर होने के लिए मरना पहली और बुनियादी शर्त है। और लपकू चंपक जुगाड़ीजी इस बुनियादी शर्त को वयस्ततावश और संकोचवश फिलहाल पूरा नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए अमर होने के बजाय बेचारे अमरबेल बनकर ही छाए हुए हैं। अमरता की बात अगर आएगी तो जिंदगी के कमर्शियल ब्रेक के बाद। हाल फिलहाल लपकू चंपक जुगाड़ीजी सार्वजनिक हित में साहित्य में अमरत्व का नहीं, सिर्फ मनोरंजन का केंद्र बने हुए हैं। एक रेडियो एक्टिव साहित्यकार बनकर। इनके लग्गू-भग्गू इन्हें मुहम्मद रफी से एक मीटर बड़ा गवैया मानते हैं। इस मामले में उनके अपनी अलग-अलग  डिजायन के तर्क हैं। वे दलील देते हैं कि रफी साहब ने अपनी पूरी जिंदगी में दस हजार गीत गाए थे। हमारे लपकू चंपक जुगाड़ीजी ने तो अपना एक ही गीत मंच पर दस हजार बार गाकर मज़ाक-ही-मज़ाक में एक नया कीर्तिमान कायम कर दिया है। और वो भी रेडियो में कठोर नौकरी करते हुए। अजब-ग़ज़ब कलाकार हैं हमारे- लपकू चंपक जुगाड़ीजी।  गाते हैं तो लगता है मानो शास्त्रीय संगीत की रैली में गीदड़-प्रलाप कर रहे हैं। लोग उनकी आह पर भी वाह करते हैं। आह और वाह के दलदल में तांडव करते लपकू चंपक जुगाड़ीजी अपनी दिव्य क्रीड़ा से श्रोताओं को घड़ी-घड़ी मोह रहे हैं। श्रोता और दर्शक  उनकी इस नौटंकी से मोहित होंगे ही ऐसा उनका अटूट अंधविश्वास है। हकीकत वो देख नहीं सकते। क्योंकि वे आनंद में हैं। आनंद के परम आनंद में। और आनंद में आंखें कहां खुलती हैं। वह तो उसी तरह बंद हो जाती हैं-जैसे दंगों के बाद बाजार की दुकानें। और फिर लपकू चंपक जुगाड़ीजी की आंखों में तो औकात से ज्यादा हथियाई कामयाबी की पट्टी भी बंधी है। मगर हमारे लपकू चंपक जुगाड़ीजी तो रेडियोएक्टिव साहित्यकार हैं। और रेडियोएक्टिव साहित्यकार तो अंधा होते हुए भी अंधेरे के कचरे में से अपने स्वार्थ के रंगीन पाउच ढूंढ ही निकालता है। रेडियोएक्टिव पदार्थ तो अंधेरे में ही चमकते हैं। इसलिए साहित्य में जितना अंधियारा होगा हमारे लपकू चंपक जुगाड़ीजी उतने ही ज्यादा चमकेंगे। किसी मनचले ने कहा है कि उल्लू की आंखें भी रेडियोएक्टिव होती हैं,इसीलिए वो अंधेरे में देख पाता है। बिलकुल हमारे लपकू चंपक जुगाड़ीजी की तरह। दोनों इस मामले में समान गोत्र के और समान डिग्री के विद्वान हैं। हम अनपढ़ इनकी बातें क्या समझें। पर इतना जरूर जानते हैं कि यदि उल्लू रेडियोएक्टिव जीव है तो वह जीवनभर रेडियोएक्टिव रहेगा मगर अपने लपकू चंपक जुगाड़ीजी तो जब तक रेडियो की नौकरी में हैं तभी तक ही रेडियो एक्टिव हैं। इसलिए वो आज चाहे कितनों को भी उल्लू बनालें मगर है खानदानी उल्लू के मुकाबले महज़ एक कमजर्फ उल्लू। मगर आप इनकी ताकत को कम न आंकें। पूरे गुलिश्तां को बरबाद करने के लिए एक ही काफी होता है। और लपकू चंपक जुगाड़ीजी तो लाखों में एक हैं।
आई-204,गोविंदपुरम,गाजियाबाद
मोबाइल-9810243966

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