समाज के कुत्ताइकरण पर आपका तेजाबी व्यंग्य बहुत कुछ सोचने को मजबूर करता है। आप अच्छा लिखते है और खूब लिखते हैं मगर कैसे लिखते हैं यह सोचने की बात है। आपको शत प्रणाम... चुनिंदा पंक्तियां-
कुत्ता बाहुल्य भूखंड को सभ्यसमाज में पॉश कॉलौनी के नाम से जाना जाता है। वैसे यहां के रहनेवाले अज्ञानतावश यह समझते हैं कि उनके यहां रहने से कॉलोनी पॉश कॉलोनी कहलाती है। नीरस ज़िंदगी को चंद गलतफहमियों और मुगालतों के जरिए यदि छोटा आदमी चार्मिंग बनाने की हरकतें करता हैं तो ऊंचे लोग इन्हें नज़रअंदाज़ करने की उदारता दिखाकर,अपने बड़े होने का हमेशा सबूत देते हैं। इस बड़प्पन के कारण ही आजतक किसी सामाजिक संगठन ने कॉलौनीवासियों के इस अंधविश्वास के खिलाफ कोई आवाज़ नहीं उठाई है। उन्हें विश्वास है कि जैसे नवजात पिल्लों की बिना किसी आंदोलन के अपने-आप आंखें खुल जाती हैं,वैसे ही इस कुत्ता-बाहुल्य कॉलौनी के निवासियों की भी एक-न-एक दिन आंखें ऑटोमेटिकली खुल जांएगी। और तब इन्हें इस बात का आत्मबोध होगा कि उनकी समाज में जो भी कुल जमा पचास ग्राम इज्जत है,वह भी इन संभ्रांत,कुलीन कुत्तों के ही केअर ऑफ है। वरना ऐसी नस्ल के आदमी तो देश की तमाम कॉलौनियों में यूं ही पड़े रहते हैं। कौन पूछता है,इन्हें। इक्कीसवीं सदी में तो दो कौड़ी की इज्जत नहीं रही है आदमी की।
प्रशंसिकाः डाक्टर प्रेमलता नीलम
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