मैं विद्वान नहीं हूं
आज मेरे व्यंग्य लेख पर आदरणीय विश्वमोहन तिवारीजी ने अच्छी चुटकी ली है। और मेरे ही उस्तरे से मेरी हजामत बना दी है। मुझे खुशी है कि वे मेरे व्यंग्य की आत्मा तक पहुंचे और प्रतिक्रिया भी व्यंग्य में ही दी। मैं उन्हें धन्यवाद देता हूं। साथ ही उनकी रचना बंधुआ मजदूर श्रमिकों के संबंध में जिस पारदर्शी ढंग से हमारे सामाजिक छद्म को बेनकाब करती है उसके संबंध में यही कहना चाहूंगा कि सृजन की ऐसी पैनी दृष्टि जीवन के यथार्थ को सतर्कतापूर्वक आत्मसात करनेवाली चेतना की ही रचनात्मक अभिव्यक्ति हो सकती है। उन्होंने जो देखा उससे असंबद्ध न होकरजब रचनाकार उसके साथ जुड़ जाए। उसे शिद्दत से अपने तई जिये तभी यह रचना निसृत हो सकी है। कविता का यही धर्म भी है। जहां व्यक्तिगत अनुभूति सामाजिक उत्पाद बन जाए। उनसे ब्लॉग पर ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की हम भविष्य में भी उम्मीद करते हैं। जयलोक मंगल..अब बात अपने आत्मीय श्री प्रशांत योगीजी के विचारपरक आलेख हत्या प्रतिष्ठा नहीं दिलाती के संदर्भ में... योगीजी का सोचने का जो ढंग है वह समय सापेक्ष है। वे परंपराओं को मिर्थक मानते हैं और मन्ष्य-चेतना को उससे मुक्त करने का आह्वान करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि परंपरा और रूढ़ियों में एक झीना-सा फर्क है जिसे समाज बिना समझे ढोए चले जाता है। और तब ये परंपराएं विनाशात्मक सिद्ध होती हैं। बिना समझे तो किसी भी चीज़ का उपयोग विनाशकारी होता है। एक गधे की पीठ पर दुनिया की बहुमूल्य किताबें लाद दी जाए तो इतनेभर से गधा विद्वान नहीं बन जाता है। एक समझ भी जरूरी है किताबों में लिखे को समझने के लिए। लेकिन किताबों के गधी की पीठ पर रख देने से किताबों का भी महत्व कम नहीं हो जाता है। किताब की सार्थकता किताब में लिखे को समझने में है। परंपराओं के साथ भी कुछ ऐसा ही है। गधों की पीठ पर लदे वेद और उपनिषद हैं,जिन्हें उसने अज्ञानता में रूढ़ि बनाकर अपने ही दिए से अपना घर जला लिया और जला भी रहे हैं। इस महा मानवीय चूक से सावधान करते हुए प्रशांत योगीजी दो तरह के अंतर्द्वद्व में हैं। क्या किताबों को जला दिया जाए या फिर इन्हें गधे की पीठ से उतार लिया जाए। क्योंकि गधों को वेद पढ़ाना मुश्किल ही नहीं असंभव भी है। अब गधों के बहिष्कार को को कोई किताबों का बहिष्कार समझ ले तो इसमें योगीजी का कोई दोष नहीं है उन्होंने परंपराओं पर गंभीर विमर्ष कर हमें नए सिरे से सोचने का रचनात्मक आह्वान किया है। अक्सर धार्मिक व्यक्ति रूढ़ियों को ही परंपरा कहकर रेखांकित करते हैं। योगीजी ने इस फर्क को अपने अंदाज में समाज को बताने की सार्थिक कोशिश की है। मैं उनकी समय सापेक्ष चेतना की प्रशंसा करता हूं।
पंडित सुरेश नीरव
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