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Tuesday, December 21, 2010

प्रार्थनाएं याचनाएं नहीं होती हैं

चिंतन-चिंतन-चिंतन
प्रार्थनाएं याचनाएं नहीं होती हैं
कल ब्लॉग पर श्री प्रशांत योगीजी का आलेख प्रार्थनाओं के संदर्भ में जो था उसे मैंने बड़े ध्यान से पढ़ा। और आदमी के मनोविज्ञान पर भी काफी सोचा। जहां तक मेरा मानना है आदमी को प्रार्थना का अर्थ ही नहीं मालुम। शाब्दिक अर्थ की बात मैं नहीं कर रहा हूं। इस पर तो विद्वान किताबें लिख चुके हैं और जहां कह दें वहीं बोलने को भी खड़े हो जाएंगे। मैं जिन गहरे अर्थों में प्रार्थना की बात कह रहा हूं वहां प्रार्थना एक निर्विचार मन की निर्मल अभिव्यक्ति होती है। मगर कामनाओं के भार से चरमराता मन ईश्वर से प्रार्थना में भी कामनाएं करता है। शर्तें लगाता है कि मेरा फलां काम कर दोगे तो मैं आप का इतने रुपए का प्रसाद चढ़ाउंगा। रिश्वत देता है वह ईश्वर को। भीख मांगता है वह ईश्वर से। प्रार्थना कहां करता है। प्रार्थना करने का नैतिक तमीज कहां है उसके पास। प्रार्थना का अर्थ तो स्वयं को ईश्वर के आगे निष्काम भाव से समर्पित करना होता है।
बहुत पहले मैंने लिखा था कि-
देहरूपी रथ पे कसी लगाम सांस की है
सारथी समय है और दिन-रात पहिए
ध्यान की ध्वजा पे मेरे बैठे हनुमानजी हैं
प्रभु की कृपा के आगे कुछ नहीं चहिए
मांगते उसी से आप है जिसे सभी तो ज्ञात
कामनाओं को न आप प्रार्थनाएं कहिए
विधि के विधान से होता बड़ा कुछ नहीं
जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिए।
प्रार्थना के संदर्भ में मेरे विचारों और आपके विचारों में कितनी समानता है। जबकि आपने जब आलेख लिखा तो उससे पहले मेरी रचना नहीं सुनी थी और जब मैंने आज से दस साल पहले यह रचना की थी तो आपका आलेख कहीं नहीं पढ़ा था। शायद यही सत्य की सनातनता है। और विराटता भी। सत्य सत्य ही होगा चाहे कबीर बोले या नानक या कि प्रशांत योगी। मेरे प्रणाम स्वीकारें...
पंडित सुरेश नीरव

1 comment:

ManPreet Kaur said...

nice article..

mere blog par bhi kabhi aaiye waqt nikal kar..
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