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Wednesday, December 22, 2010

हर दिवस के अंत पर

हर दिवस के अंत पर
सज संवरकर
आ खड़ी होती है सम्मुख शाम
पूछने को प्रशन
क्या किया दिनभर
क्या हुए पूरे अधूरे काम ?

सोचता भर हूँ
कह नहीं पाता
क्योंकि मेरा उत्तर भी
अधूरा उसके प्रश्न सा
मुझी से पूछता है प्रश्न
क्या कभी पूरे हुए हैं
इस जगत में आदमी के काम ?

तुम्हारे प्रश्न का उत्तर
नहीं है पास मेरे
बल्कि उलटा प्रश्न है
बस तनिक इतना बता दो
क्या कभी
उसको लिवाकर ला सकोगी
नाम जिसके आज तक लिखता रहा मैं
प्रीत के पैगाम

ए सूर्य ! तुम तुमसे प्रार्थना है
खींच करके रज्जुओं को
अश्व अपने थाम लो
न जाओ आज अस्ताचल
तनिक विश्राम लो
क्यों लग रहा ऐसा मुझे
कि आज वह आने को है
चाहता हूँ
मैं तुम्हारी इस बिखरती लालिमा से
एक चुटकी भर चुरा लूं
और भर दूं मांग उसकी
नाम जिसके कर चुका मैं
उम्र कि हर शाम
बी एल गौड़

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