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Thursday, December 30, 2010

सहकारिता - कल. आज और कल


नीरव जी की जैसी सहकारिता साहित्य में तो दुर्लभ है, (वहां दल बन्दी‌ है, सहकारिता नहीं है) आज के स्वार्थमय जमाने में सहकारिता अन्य स्थलों पर भी दुर्लभ है। उनकी सहकारिता का मुझे कुछ ज्ञान तो था, किन्तु बिस्मिल साहब की पुण्य़तिथि के अवसर पर मैने देखा कि अरविन्द पाठक और पुरुषोत्तम सिंह के साथ मिलकर, खाली जेब, उनके सहकारी दल ने बिस्मिल पर एक फ़िल्म जैसी खर्चीली कलाकृति का भी निर्माण कर डाला था। उस अद्भुत सहकारिता के लिये वह पूरा दल बधाई का पात्र है। आज के संकटकालीन समय में हमें सहकारिता की अत्यंत आवश्यकता है.

मैने भी मनन किया और सहकारिता पर एक शोधात्मक लेख तैयार हो गया है। वह लेख गहन है, गंभीर है और लम्बा है।इसलिये मैं उसे छ किश्तों में डालना चाहता हूं। यदि प्रतिक्रिया उचित नहीं मिली तो पाठकों को परेशान नहीं करूंगा। पहली किश्त प्रस्तुत है :


1. कल्पना करें आज से पच्चीस हजार वर्ष पहले की जब आदमी मुख्यतया शिकार पर ही जीवन यापन करता था। मनुष्य की अपेक्षा सृष्टि के अनेक अन्य जानवर उससे कहीं अधिक सशक्त रहे हैं। बाघ या सिंह वन में राज्य करते रहे हैं; तब यह उनसे दुर्बल जीव मनुष्य कैसे अपनी रक्षा कर पाया, और उन सशक्त जानवरों का भी राजा बन गया? जंगल में जहां उसे हिरन या मोर आदि का शिकार करने जाना होता था, वहां तो इऩ्हीं आक्रामक और शक्तिशाली जानवरों का राज्य होता था। तब वह वहां कैसे आखेट के लिये अकेले जा सकता ! उसे तो दल बनाकर ही‌ जाना पड़ता होगा, ताकि चारों दिशाओं पर (वैसे तो छह दिशाएं कहना चाहिये - एक ऊपर क्योंकि झाड़ों पर से भी आक्रमण हो सकते थे - और नीचे सरी सृपों से रक्षा के लिये) चौकस रखी‌ जा सके। यदि शारीरिक रूप से दुर्बल मानव जाति इन भयंकर जंतुओं के रहते अपनी रक्षा तथा योग क्षेम मात्र लाठी तथा पत्थरों से कर सकी थी, तब इसमें संदेह नहीं होना चाहिये कि यह 'सहयोग' या सहकार से ही हुआ। सहयोग के तत्काल प्रतिदान की अपेक्षा नहीं होती सिवाय इसके कि 'शुभ कामनाएं' मिलें। किन्तु उस काल के आखेट में सहयोग में भी‌ कुछ स्पष्ट 'लेन देन' की भावना या मान्यता रहती होंगी, जैसे कि शिकार (हिरन) का मांस सभी‌ में‌ बँटता होगा, वास्तव में वह सहयोग अलिखित सहकार ही था, लिखित अनुबन्ध तो उन दिनों नहीं होते थे।

आखेट और रक्षा का यह सहयोग तथा सहकार हमारे जीन्स या आनुवंशिकी‌ में पर्याप्त मात्रा में‌ आ गया है; किन्तु इससे अधिक मात्रा में तो हमें स्वार्थमय योगक्षेम ही‌ मिला है, और सौभाग्य कि इससे भी अधिक हमें संतान प्रेम मिला है।

.यह तो हमें मालूम है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी‌ है जैसे चींटी, मधुमक्खी आदि, क्योंकि इनके सदस्यों में समाज के हित के लिये कार्य, स्व की देखभाल के अतिरिक्त, बँटे रहते हैं। और इसीलिये, यह गुण न होने के कारण, बाघ, सिंह, बिल्ली आदि सामाजिक प्राणी नहीं हैं। भेडिये, जंगली‌ कुत्ते आदि को हम अर्ध सामाजिक कह सकते हैं, क्योंकि इनमें‌ सहयोग शिकार करने तक ही सीमित होता है। किन्तु यह दृष्टव्य है कि समाज का लाभ सभी प्राणी उठाते हैं, और समाज को लाभ भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, सभी प्राणी पहुँचाते हैं। इसलिये वर्गवादी दृष्टि की अपेक्षा समग्र या समग्रतर दृष्टि अधिक वांछनीय है।

क्रमश:

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