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Thursday, December 16, 2010

देश की तमाम पृथक्तावादी शक्तियों को सहयोग कर रहा है अमेरिका

गौतम चौधरी
विगत दिनों कश्‍मीर पर जोरदार बयानबाजी कर कथित समाजसेविका और सचमुच की लेखिका अरूंधती राय एकाएक चर्चा में आ गयी। फिर तहलका पत्रिका के हिन्दी संस्करण में मैंने, अपने को माओवादी चिंतक कहने वाले, वारवरा राव का साक्षात्कार पढा। उस साक्षात्कार में वारवरा, देश में सक्रिय सभी आतंकियों से अपना संबंध जोडते हुए दिल्ली को संयुक्त रूप से दुष्मन घोषित कर रहे हैं। फिर किसी ने देश के गृहमंत्री पी0 चिदंबरम किसी से पूछ लिया कि जब कष्मीरी अलगाववादी नेता गिलानी पर राष्ट्रद्रोह का अभियोग चल सकता है तो अरूंधती पर क्यों नही? देश का गृहमंत्रालय संभाल रहे चिदंबरम साहब के अपने तर्क है, लेकिन इसी देश में कांची कामकोटि पीठ के पू0 शंकराचार्य को गलत आरोप में गिरफ्तार किया गया। स्वयं चिदंबरम भगवा रंग को आतंक से जोडकर प्रचारित कर रहे हैं। एक साध्वी को बिना किसी ठोस सबूत के विगत कई वर्षों से परेशान किया जा रहा है और इतने से मन नहीं भरा तो वर्तमान सत्ता अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाने के लिए कोई अनरगल कारण ढुंढ रही है। जब से इस देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई है तब से लेकर अब तक तीन बार संघ पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। सत्ता के वर्तमान गतिविधि से इस आषंका को बल मिलने लगा है कि संघ पर नये सिरे से प्रतिबंध लगाने की योजना एक बार फिर बनायी जा रही है।
देश के अंदर प्रेषित विचार और घट रही घटनाओं की मीमांसा यह कह रही है कि देश के तमाम आतंकवादी और देश तोड़क शक्तियों के बीच एक खतरनाक गठजोड बन गया है। विचार करके देखें तो जो लोग कश्‍मीर एवं पूर्वोत्तर के आतंकवाद का समर्थन कर रहे हैं वही लोग देश के अंदर माओवादी आतंकवाद के भी समर्थक हैं। अगर गौर से देखा जाये तो जिन शक्तियों के द्वारा कश्‍मीरी अलगाववादी नियंत्रित हो रहे हैं वही शक्ति पूर्वोत्तर के अलगाववादियों को सह दे रही है। फिर देश के अंदर सक्रिय माओवादियों को भी उसी शक्तियों से समर्थन मिल रहा है। गहराई से विचार करने और तथ्यों के अवलोकन से लगता है कि देश में सक्रिय उन तमाम पृथ्क्तावादी शक्तियों को किसी एक ही स्थान से नियेंत्रित किया जा रहा है। अपने भारत में हर चिंतन के लोग बसते हैं और हर का अपना अपना दृष्टिकोण भी है। ऐसा कोई आज से नहीं हमारे देश में पूर्व से होता रहा है। हमारे देश में जहां सारिपूत्र उपगुप्त थे तो घुर नियतिवादी अजित केशकम्बली भी अपने श्रावकों के साथ विचरते थे। मखरी गोशाल जैये धुर भौतिकवादी चारवाक दार्शनिक भी भारत में ही पैदा हुआ। महात्मा बुध्द के समर्थकों में महात्मा आनंद थे तो दूसरी ओ लघुपंथक का भी अपना संप्रदाय था। विचारों में भिन्नता हमारे देश की विशेषता रही है लेकिन जब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रष्न खडा होता था तो देश के सभी विचारक महाकुभ में एकत्रित होकर आसन्न समस्या का समाधान भी करते थे। आर्य विष्णुगुप्त चाणक्य ने आर्यावर्त के सभी विचारकों को संगठित कर नये सिरे से मगध साम्राज्य की नीव रखी। हालांकि चाणक्य सम्राट अजातशत्रु के महामात्य आर्य वार्शकार के राजनीतिक चिंतन का विस्तार थे लेकिन देश में संस्कृति के आधार पर राष्ट्रवाद की नयी परिभाषा देने में चाणक्य सफल रहे। ऐसा कोई पहली बार रहीं हुआ। भारतीय प्रायद्वीप पर इस प्रकार की राजनीतिक घटनाएं कई बार हो चुकी है। यह इसी देश में हुआ जब सबसे कम आयु के संन्यासी महात्मा सुखदेव ने नैमिसारण्य में हजारों संयासियों को आने वाले धर्म की शिक्षा दी थी। हमारे विचारक और चिंतक कभी राष्ट्र, संस्कृति और मानवता की शर्तों पर समझौता नहीं किया। इसीलिए हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है – एके सदविप्रणांम बहुधा बदंति! यानि एक ही सत्य को विद्वान कई तरह से पेश करते हैं। परंतु आज देश में आतंकवाद और अलगाववाद को सकारात्मक बताया जा रहा है। फिर संयुक्त राज्य अमेरिका में जब से आतंकी हमले हुए हैं उसके बाद से भारत में भी आतंकवाद पर नये सिरे सोचा जाने लगा है। क्या है न कि अमेरिकी अपनी समस्या को वैश्विक बनाना अच्छी तरह से जानते हैं और आज का भारतीय कूटनीति अमेरिका की समस्या को अपनी समस्या बनाने में मानों मजा आ रहा हो। हमारे देश में भी अब अमेरिका की तरह आतंकवाद पर दृष्टिकोण बनाया जाने लगा है लेकिन हम इस दृष्टिकोण में यह भूल जाते हैं कि भारत में आतंकवाद को बढावा देने में जिन शक्तियों का योगदान है उन शक्तियों की धुरी आज के संयुक्त राज्य अमेरिका ही है। हमारे देश में तीन प्रकार का अलगाववाद है। एक को पाकिस्तान इस्लाम के आधार पर सह दे रहा है। पाकिस्तान के कूटनितिज्ञों का कहना है कि अंग्रेजों से पहले भारत पर मुगलों का कब्जा था और मुगल मुसलमान थे इसलिए पूरे भारत पर इस्लाम का ही नियंत्रण होना चाहिए। पूर्वोत्तर के अलगाववादियों का तर्क है कि भारत पर अंग्रेजों का शासन था, अंग्रेज ईसाई थे इसलिए भारत पर ईसाई धर्म के मानने वालों का शासन होना चाहिए। अपने देश में एक तीसरे प्रकार का भी अलगाववाद है। यह अलगाववाद, आतंकवाद से पनपा है। जब भारत के अंदर राष्ट्रीय आन्दोलन चल रहा था उस समय दुनिया में साम्यवाद अपना पैर जमा रहा था। ऐसे भारत में साम्यवादी दल की स्थापना का कोई दिन तारिख निश्चित नहीं है। यहां तक कि कोई स्थान भी निष्चित नहीं है। स्वतंत्रता आन्दोलन में जहां-तहां सक्रिय कुछ आन्दोलनकारी रूस को आधार बनाकर देश की आजादी की बात करने लगे थे कुछ आन्दोलनकारियों ने कानपुर में एक मंच बनाया। फिर सन 1925 को ताशकंद में एक संगठन की नींव रखी गयी जिसका नाम भारत की कम्युनिस्ट पार्टी रखी गयी। इस संदर्भ में आज से 13-14 साल पहले मैंने नवभारत टाईम्स में एक लघु आलेख पढा। आलेख संपादकीय पन्ने पर छपा था। उस लेख को आधार मानें तो भारत के कुछ क्रांतिकारी मानवेन्द्र नाथ राय के कहने पर तृतिये अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी सम्मेलन में मास्को गये। उस समय मानवेन्द्र नाथ राय मैक्सिको से प्रतिनिधि बन कर उस सम्मेलन में आये थे। मास्को जाने वालों में से भारत के एम0 वर्कतुल्ला, राजा महेन्द्र प्रताप, लाला हरदया आदि सात लोग थे। हालांकि भारत में आजादी की लडाई में लेनिन का समर्थन लेने ये लोग वहां गये थे लेकिन लेनिन ने भारत की आजादी की लडाई में समर्थन से इनकार कर दिया। यह जानकार आज के साम्यवादियों को आष्चर्य होगा कि जब भारत के राष्ट्रभक्त भारत की आजादी के लिए लड रहे थे उसी समय मानवेन्द्र नाथ राय जैसे घुर साम्यवादी आजादी की लडाई का यह कहकर विरोध कर रहे थे कि यह लडाई भारत के व्यापारी, भूमिपति और सामंतों के द्वारा खरी की गयी लडाई है। इस प्रकार की बातें मनगढंत नहीं है। इसके मुकम्मल प्रमाण भी खोजने पर मिल जाएंगे। जब हमारे राष्ट्रभक्त मैनचेस्टर और ब्रिटिस कोलंबिया के कपडों की होली जला रहे थे उस समय भी साम्यवादियों ने विरोध किया था और कहा था कि ऐसा करने से इग्लैंड के मजदूर बेरोजगार हो जाएंगे। तो भारत में आज जो तीसरे प्रकार का अलगाववाद है उसकी गंगोत्री साम्यवाद की वह सोच है जिसे इस देश में कभी व्यापक महत्व नहीं दिया गया।
एक बात यह भी सत्य है कि दुनिया का कोई भी अलगाववाद न तो बिना पैसे से चल सकता है और न ही अन्य किसी देश की सहायता से चलाया जा सकता है। हमारे देश में जो अलगाववाद है वह भी किसी न किसी देश के सहयोग और उक्सावे पर ही चल रहा है। पूर्वोत्तर के आतंकवादियों को वेटिकन से सहयोग मिल रहा है। इस्लामी आतंकवाद को पाकिस्तान से सहयोग मिल रहा है तथा साम्यवादी चरमपंथियों को चीन का सहयोग मिल रहा है। लेकिन यह केवल देखने में आता है, वास्तव में तीनों प्रकार के आतंकवाद को दुनिया में पूजीपरस्तों का सहयोग मिल रहा है। चीन से अमेरिका इसलिए नहीं खौफ खात है कि चीन उससे ज्यादा प्रभावशाली है, समस्या यह है कि चीन में लगे तमाम कल कारखानों में अमेरिकी व्यापारियों का पूंजी लगा हुआ है। चीन का अर्थतंत्र अमेरिका के व्यापारियों द्वारा नियंत्रित होता है। पाकिस्तान को खुलेआम अमेरिका आर्थिक और सामरिक सहयोग कर रहा है। रही बात बेटिकन की तो बेटिकन को आज सबसे ज्यादा दान अमेरिकी कैथोलिक ईसाई व्यापारियों से प्राप्त हो रहा है। कुल मिलाकर देखें तो भारत में सक्रिय आतंकियों को एक ही स्थानों से आर्थिक, वैचारिक और सामरिक सहयोग मिल रहा है। अब रही बात भारतीय बुध्दिजीवियों की तो यहां बुध्दिजीवियों के चार खेमे हैं। एक जिसे साम्यवादी खेमा कहा जाता है, दूसरा पूंजीवादी खेमा है तीसरा मध्यममार्गी खेमा है तथा चौथा राष्ट्रवादी खेमा है। राष्ट्रवादी खेमे को छोडकर तीन अन्य की आर्थिक स्थिति का मुआयना करें तो लगेगा कि आखिर इनके पास इतने पैसे आ कहां से रहे हैं? साम्यवादी विचारक, चिंतक कहने के लिए केवल सर्वहारा हैं। इनके जीवन शैली को कोई जाकर देखे। मेधा पाटेकर, स्वामी अग्नवेश, अरूणधति राय, संदीप पांडेय, वारवरा राव, विनायक सेन, तिस्ता शेतलवार, मुकुल सिंहा, राजदीप सरदेसाइ, बरखा दत्त आदि को पैसा कहां से आता है। हर के अपने अपने एनजीओ हैं और उन एनजीओ को किसी न किसी रूप में पूंजीवादी देषों से पैसा प्राप्त हो रहा है। भारत में पता लगाया जाये कि भारतीय गैर सरकारी संगठनों को सबसे ज्यादा पैसा कहां से आ रहा है तो मुझे पक्का विष्वास है कि अमेरिका से ही आ रहा होगा। ऐसे इस विषय पर किसी ने किताब भी लिखी है। उसे पढकर और ज्यादा सही ढंग से इन विषयों को समझा जा सकता है। हां इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो लोग राष्ट्रवादी चिंतन के खेमे में हैं उनमें से भी कुछ को बाहरी पैसा पहुंच रहा होगा, लेकिन वहां नियंत्रण के लिए कुछ संगठन भी है जिसके कारण विदेशी पैसे का पहुंचना निर्वाध नहीं है। ऐसो में देखें तो यह लगता है कि चाहे भारत के आतंकवादी अलगाववादी हों या उनको समर्थन करने वाले बुध्दिजीवी दोनों को एक ही स्थान से पैसा प्रप्त हो रहा है। फिर देश के तमाम अलगाववादियों का कही न कही से संबंध है और उस संबंध को और मजबूत करने के लिए देश के अंदर सक्रिय पूंजीवादी साम्यवादी अंतर संबंध अपनी भूमिका को लगातार मजबूत करता जा रहा है। इस परिस्थिति में देश की जनता को उन बुध्दिजीवियों से सतर्क रहना चाहिए जो केवल पूंजीपरस्त देषों के लिए काम कर रहे हैं। याद रहे ये लोग न तो कष्मीरी जनता के प्रति वफादार हैं और न ही पूर्वोत्तर के प्रति। न तो ये माओवादियों के हैं और न ही इस्लाम के। ये तो पूंजीपरस्त ईसाइयों के लिए ही काम कर हरे हैं जिसका खामियाजा हम सभी को भुगतना पड रहा है। थोडी समझदारी और अंतरसंबंधों से हमारा राष्ट्रीय सामाजिक ढांचा मजबूत हो सकता है। इस दिशा में प्रयास की जरूरत है और इन विदेशी पैसों पर पल रहे चारणों को सबक सिखलाने की जरूरत है।
प्रवक्ता से साभार

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