हीरालाल पांडेय
एक संत हर बात में से कोई सार्थक संदेश देने का प्रयास करते थे। एक बार किसी ने उनसे पूछा कि क्या मृत्यु में भी कोई ऐसा संदेश है ? संत ने कहा – हां, दादा जी, दादी जी, पिताजी, माता जी आदि की मृत्यु में एक सार्थक संदेश है कि आना और जाना सृष्टि का अटल नियम है। यदि यह न हो, तो सृष्टि नष्ट हो जाएगी। जो पहले आया है, वह पहले जाएगा। घर में बुजुर्ग की मृत्यु होने पर हम कुछ दिन रो-धोकर फिर काम में लग जाते हैं; पर यदि किसी युवक अथवा बच्चे की मृत्यु हो जाए; किसी बाप को अपने बच्चे की अर्थी कन्धे पर लेकर जानी पड़े, तो वे माता-पिता इस बोझ को जीवन भर नहीं सह पाते। जीवन ही उन पर भार बन जाता है। मेरे आवास के पास एक बहुत दुबला-पतला, बीमार सा धोबी कपड़े प्रेस करता था। प्रायः उससे राम-राम होती थी। एक दिन मैंने उससे उसकी बीमारी का कारण पूछा, तो उसने बताया कि उसका 18 साल का बेटा अचानक बीमार होकर मर गया, बस तब से यह दुख उसके सीने में बैठा है। यद्यपि अब दूसरा बेटा भी 18 साल का होकर काम में लग गया है; पर पहले वाले की याद नहीं जाती। इतना कहकर वह रोने लगा। मैं क्या कहता, चुपचाप वहां से उठ गया।पर कुछ ऐसे जीवट वाले लोग भी होते हैं, जो अपने इस दुख को भी समाज हित में अर्पित कर लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन जाते हैं।
गहलौर घाटी, बिहार के दशरथ मांझी को यदि याद करें, तो 1960 में उनकी गर्भवती पत्नी फगुनी देवी की मृत्यु ने उनके जीवन की दिशा बदल दी, जो घास काटते समय पहाड़ी से गिरने के बाद गांव और शहर के बीच की दूरी अधिक होने के कारण समय पर अस्पताल नहीं पहुंच सकी। बीच में एक पहाड़ी थी, जिसके कारण गांव से 20 कि.मी की यात्रा कर ही शहर पहुंच सकते थे।
दशरथ मांझी ने संकल्प कर लिया कि वह इस पहाड़ में से रास्ता निकाल कर रहेगा। वे प्रतिदिन सुबह छेनी-हथौड़ा लेकर पहाड़ को बीच से तोड़ने में लग जाते। उनकी 22 साल की साधना और परिश्रम के आगे पहाड़ भी झुक गया और उसने रास्ता दे दिया। अब गांव और शहर के बीच की दूरी मात्र एक कि.मी ही रह गयी। 17 अगस्त, 2007 को उनकी मृत्यु हो गयी; पर शासन तब तक उस एक कि.मी की दूरी को पक्का नहीं करा सका।
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