ये भी क्या इत्तफाक है कि आज मैं प्राकृतिक संपदा से संपन्न होकर पचमढ़ी से लौटा और आज ही प्रकृति के नष्ट होते हुए नजारों पर मंजु ऋषि की कविता पढ़ने को मिली। जिसकी पर्यवरणीय चिंताकुलता हमें सोचने को विवश करती है। एक सोचपरक कविता के लिए मंजु बधाई की हकदार हैं।
प्रकृति का सौंदर्य छिन गया है, उजड गयी है धरती
धूल में सन गया है गगन, धूमिल हो गयी है वनस्पति
चारों ओर हाहाकार मचा है, लुट गयी है शांति
मानव बन गया है कातिल, नष्ट हो गयी हर बस्ती
धूल में सन गया है गगन, धूमिल हो गयी है वनस्पति
चारों ओर हाहाकार मचा है, लुट गयी है शांति
मानव बन गया है कातिल, नष्ट हो गयी हर बस्ती
हर व्यक्ति का अपनी जिंदगी में एक वृक्ष लगाने का संकल्प ही प्रयावरण को बचा सकता है...
पंडित सुरेश नीरव
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