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Monday, December 27, 2010

धर्मशाला से लौटकर


अभी धर्मशाला में तीन दिन का बहुत ही सुखद प्रवास कर के ग़ज़ियाबाद लौटा हूं। श्री प्रशांत योगीजी ने जो आत्मीयता की अभिव्यक्ति इस दौरान की, वह अप्रतिम है। पहाड़ों में संवेदना को 72 घंटे जीने के बाद मैं कह सकता हूं कि योगीजी का जीवन सचमुच यथार्थ का ही मेडीटेशन है। हर क्षण प्रार्थनाओं-सा निश्छल और अध्यात्म-सा नर्म और मुलायम। मैं समझ नहीं पाया कि मैं वहां अतिथि था या फिर बहुत दिनों बाद अपने ही घर को जी रहा था। सान्निध्य का एक-एक क्षण ऋचाओं सा पवित्र..। मैं योगीजी के लिए कुछ भी नहीं कहने की स्थिति में हूं। मेरा मौन ही काफी कुछ कहेगा। लगता था धर्मशाला की वादियों में योगीजी का गुरुत्वाकर्षण इतना ज्यादा था कि धर्मशाला की जमीन हमें छोड़ने को तैयार नहीं थी। एक बस तो आंखों के सामने हमें छोड़कर चली गई और दूसरी बस के पिछले दोनों पहिए कोहरे से लिपटी रात में ऐन जंगल में पंक्चर हो गए। रात वहीं काटी। फिर भी मैं अहोभाव से योगीजी के प्यार के प्रति कृतज्ञ हूं। यात्रा के दौरान बस में ही एक ग़ज़ल मैंने कही है जयलोक मंगल के पाठकों के पेशे-खिदमत है-
कोई और है..
आतिशों से मैं घिरा हूं,जल रहा कोई कोई और है
मंजिले मुझको मिलीं पर चल रहा कोई और है

कर भलाई भूल जाना ये जमीं से सीखिए
फर्ज़ धरती ने निभाया फल रहा कोई और है

देख जलती मोमबत्ती सोच कर हैरान हूं
नाम बाती का हुआ है गल रहा कोई और है

सोच में कुछ और था वो सामने कुछ और है
ढालता हूं मैं उसे पर ढल रहा कोई और है

इक जहां रौशन है तुझमें क्या तुझे मालूम है
जिस्म तो नीरव है तेरा पल रहा कोई और है..
पंडित सुरेश नीरव












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