
आयातित संस्कृति के खतरे में रंजन ज़ैदी ने हम सभी की दुखती नब्ज़ पर हाथ रखा है।
क्या यह चुनौती हम सभी को ललकार नहीं रही है?
मै इस्के समाधानो के सुझाव काफ़ी समय से विभिन्न पत्रिकाओं में दे रहा हूं, इनी गिनी प्रतिक्रियाएं ही मिलती हैं,
मानो सभी इस रंगीन कीचड़ में लोट कर मस्त हो रहे हैं।
यह मैने अनेक पत्रिकाओं में लिखे हैं; किन्तु इंटरनैट के डाट काम में भी मेरे नाम से उपलब्ध हैं।
यदि इस ब्लाग के पाठक चाहेंगे तो उऩ्हें चर्चा के लिये इस पर भी सहर्ष दिया जा सकेगा।
रंजन ज़ैदी को धन्यवाद
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