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Wednesday, January 5, 2011

हंसजी परमहंस हैं

 समय-समय पर मैं ब्लॉग पर श्री भगवानसिंह हंसजी की टिप्पणियां पढ़ता रहता हूं। प्रश्न उठता है मन में कि क्या ये महज टिप्पणियां हैं। ऐसी टिप्पणियां जो साहित्य में आलोचक करते हैं। या फिर उनसे कुछ भिन्न चीज़ है। यकीनन ये औपचारिक टिप्पणियां नहीं हैं। बल्कि ये किसी ईमानदार आत्मा का स्वास्ति वाचन है। प्रार्थानाओं-सा पवित्र और दुआओं-सा कोमल। किसी भी मंतव्य से प्रभावित हुए कि दिल खोल कर उन अक्षरों पर आशीर्वर्षा करने लगे। जैसे गेंहूं से भरी बोरी में कोई बड़ी कील घुसा दे। और गेंहूं झर-झर,  भरभरा कर निकल पड़ें। कुछ ऐसा ही भरा-भरा दिल है हंसजी का। सरल और ऋजु ऐसे जैसे कोई सतयुग का संत। भोले ऐसे जैसे शिव-शंकर। समर्पण ऐसा जैसे त्रेता में हनुमान और द्वापर के सुदामा हों। हर शब्द भक्ति युग के सांचे में ढला हुआ। मेरे लिए उनके मन में गुरुभाव है। पर प्रेम की गागर तो उनकी सबके लिए छलकती है। भावना के पारदर्शी आंसुओं से गीली-गीली आंखें। होठों पर करुणामयी हंसी। सांसों में भरतचरित की विराट पावनता। हंस में तो नीर-क्षीर विवेक होता है। मगर यहां कोई गुणा-भाग नहीं। हंस परमहंस हो चुके हैं। अपने में सिद्ध। स्वयं सिद्ध,स्वयंभू। यह अध्यात्म की वह स्थिति है जिसे कबीर ने जिया था। संत फकीर और औलियाओं का अल्हड़पन। सचमुच बहुत प्यार करने को मन करता है,इस फक्कड़ जिजीविषा को।
मेरे पालागन...
पंडित सुरेश नीरव

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