Search This Blog

Wednesday, January 5, 2011

खुशियाँ हो गईं बाँझ

श्री बी.एल.गौड़ साहब,
जीवन के संघर्ष और फिर तमाम मुश्किलों से मिली सफलता मैं रिश्ते किस तरह समय के हाथ से रेत के कणों से बिखर जाते हैं इसका बहुत ही मार्मिक चित्रण आपने कविता में किया है।  बहुत कुछ पाकर संवेदनाओं के स्तर पर कितना रीत जाता है आदमी। इस व्यथा-कथा का सुंदर चित्रण है आपकी कविता। खासकर ये पंक्तियां-
प्रखर धूप जीवन की
जाने कब सुरमई हुई
फिर धीरे धीरे चुपके चुपके
उतरी आँगन सांझ
अंतर कलह पी गई रौनक
खुशियाँ हो गईं बाँझ
आनन् फानन चौड़े आँगन
होने लगी चिनाई
सूनी आँखों अम्मा ताके
जबरन रोक रुलाई
कटे पेढ़ से घर के मुखिया
बैठे द्वार अकेले
टाक रहे सूने अम्बर में
विगत काल के मेले
एक आस पर अब तक जीवित
ना जाने कब आते जाते
किसी राह में फिर मिल जाए
बची खुची वह गज़ब ख़ुशी।
सार्थक कविता के लिए बधाई..
पंडित सुरेश नीरव

No comments: