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Sunday, January 2, 2011

संस्कृति उपयोगिता से ज्यादा महत्व सौंदर्य को देती है


श्री तिवारीजी के आलेखों का हम निष्ठा पूर्वक अवलोकन कर रहे हैं। उनकी कोशिश समाज को सहयोग और प्रेम के द्वारा संस्कारित करने की है। नीरवजी ने तो पूरा दर्शन ही तिवारीजी के आलेखों की प्रतिक्रिया में लिख दिया है। मैं पंडितजी की ही पंक्तियां उद्धृत कर रही हूं-

सहकार का अर्थ ही है सह की अनुभूति का कार्यान्वयन। जैसे ऊँ से ऊँकार,फट् से फटकार,हुम से हुंकार बनता है वैसे ही सह से सहकार शब्द बनता है। यह तीनों ही शब्द तंत्र के हैं। तंत्र का अर्थ है-व्यवस्था। सहकार व्यवस्था को सुचारु करता है। इसमें लगाव या प्रेम उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। प्रेम के बिना न सहयोग संभव है और न सहकार। और अगर प्रेम स्वार्थ या पक्षपात में बदल जाए तो यही शायद सरपरस्ती है। क्योंकि यह संबंध नहीं अनुबंध की भाषा को समझती है। पर्यावरण का विनाश आदमी की ही सरपरस्ती में हो रहा है। उसे फूलों से ज्यादा आज लकड़ी प्यारी है। यही है बाजार का सौंदर्यबोध। जहां रजनीगंधा से भिंडी अधिक उपयोगी हो जाती है। होती भी है। मगर संस्कृति उपयोगिता से ज्यादा महत्व सौंदर्य को देती है।
जयलोकमंगल..
डाक्टर मधु चतुर्वेदी

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