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Tuesday, February 1, 2011

घर पहुंचने की मशक्कत


सफर के बहाने..
पंडित सुरेश नीरव
कभी-कभी ऐसा योग बनता है कि आदमी सफर की गिरफ्त में आकर चकर घन्नी हो जाता है। इसबीच मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। पहले तो डीयर पार्क का कवि सम्मेलन अलस्सुबह 7.30 बजे 26 जनवरी का था इसके लिए मुझे एक दिन पहले अपना घर छोड़ना पड़ा क्योंकि इतनी जल्दी गोविंदपुरम गाजियाबाद से डीयर पार्क पहुंचना  मुश्किल ही नहीं नामुमकिन ही था। क्योंकि छब्बीस जनवरी और उसपर सिक्योरिटी के कारण दिल्ली उजड़ी-उजड़ी-सी होनी ही थी। सो बंधु अभिषेक मानव के घर जाकर सबसे पहले रात में डेरा डाला और वहां से सुबह डीयर पार्क में जाकर कविता पाठ किया। लौटकर आया तो दोपहर के बारह बज चुके थे। शाम को छह बजे जीटी एक्सप्रेस से जोकि नई दिल्ली से जाती है मुझे बैतूल जाना था तो फिर वापस गाजियाबाद आना मुश्किल था। गणतंत्रदिवस के कारण दिल्ली का मिजाज भी कुछ और था। इसलिए फिर दिल्ली में ही मानवजी के घर जा धमके। साथ में अलीहसन मकरेंडिया थे। वहीं कविताएं और भोजन-सुख प्राप्त किया। बताना यह चाह रहा हूं कि घर के पास होकर भी घर से दूर रहना नियति बन गई। खैर..शाम को मानवजी मुझे नई दिल्ली स्टेशन छोड़ आए और मैं बैतूल के लिए रवाना हो गया। सुबह 9.30 बजे बैतूल पहुंचा। जहां मुझे आभाश्री होटल में ठहराया गया। यहां से 40 किमी दूर चिचोली में गजरथ महोत्सव पर कवि सम्मेलन था। कवि सम्मेलन काफी सफल रहा। श्रोता बहुत थे। इसलिए मज़ा खूब आया। रात दो बजे तक आयोजन चला। मैं कार्यक्रम के बाद खाना खाता हूं। इसलिए मैंने शाम को भोजन नहीं किया था। संयोजक ने वादा किया था कि लौटने पर भोजन आपको मिल जाएगा। जहां कार्यक्रम है भोजन वहीं से लेते आएंगे। उनकी शराफत का मैं कायल हो गया। वे खुद भोजन कर आए और मेरे लिए भोजन लाने की उन्होंने जरूरत नहीं समझी। जब मैंने पूछा तो उन्होंने अपनी भूल पर औपचारिक शोक व्यक्त कर अपनी मनुष्यता का फर्ज निभा दिया। और लंबी तानकर सो गए। होटल में इतनी रात में पानी के सिवा कुछ भी उपलब्ध नहीं था। पानी पी-पीकर मैं उन्हें कोसता रहा। सुबह वे जल्दी से अपने घर रवाना हो गए। खैर..किसी तरह दोपहर के खाने का इंतजार करता हुआ मैं अपने आप से बतियाता रहा। जिलाशिक्षा अधिकारी क्षी ब्रजकिशोर पटेल बेहद शरीफ किस्म के इंसान थे । वे जब मेरे कमरे पर आए तो मैं उस समय रेस्टॉरेंट में भोजन कर रहा था। वापस आया तो वे इंतजार करते मिले। और ट्रेन में मुझे बैठाकर ही रुखसत हुए। इसबीच सैंकड़ों फोन उनके लिए आए मगर उन्होंने सभी को कहा दिल्ली से बहुत बड़े वीआईपी कवि आए हुए हैं मैं इन्हें विदा करके ही कार्यालय आऊंगा। नतीजा ये हुआ कि प्लेटफार्म पर ही दफ्तर चलने लगा। तमाम जरूरतमंद शिक्षक स्टेशन पर ही आ गए। अपनी-अपनी समस्याएं लिए हुए। तीन घंटे वे प्लेटफार्म से ही अपनी नौकरी का दायित्व निभाते रहे। और फिर मुझे ट्रेन में चढ़ाकर ही विदा हुए। दिल्ली लौटने का टिकट मैं दिल्ली से ही लेकर चला था। और कयास लगहा रहा था कि सुबह साढ़े छह बजे दिल्ली पहुंच ही जाऊंगा। मगर श्री जगदीश परमार जी को खबर लग गई कि मैं दिल्ली बाया ग्वालियर लौट रहा हूं तो उन्होंने मुझ पर ग्वालियर रुकने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। ग्वालियर ट्रेन रात के बारह बजे पहुंचती है। मैंने असमर्थता जताई कि इतने ऑड टाइम पर ग्वालियर उतरने से आपको बहुत तकलीफ होगी। और अगर मैं सोता ही रह गया तो ग्वालियर उतर नहीं पाऊंगा। और फिर इतनी रात में मैं आप सब को जगाऊं यह ठीक नहीं रहेगा। यह सुनकर वे बच्चों की तरह फफक-फफककर रोने लगे। कहने लगे ठीक फिर मैं मर जाऊंगा। तभी आना। इसके बाद बहन मधूलिका सिंह ने भी सत्याग्रह कर दिया। बोलीं हमने आपके सम्मान में गोष्ठी रख दी है। और तमाम लोगों को सूचना भी दे दी है। मैं खुद स्टेशन पर कार लिए खड़ी मिलूंगी। मुझे आप अपनी बोगी का नंबर बताएं। मैं समझ गया कि अब बच के निकलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है। एक शरीफ डकैत की तरह मैंने सरकार के आगे आत्म समर्पण कर दिया। रात बारह बजे समारोह पूर्वक मेरा अपहरण कर लिया गया। घर पहुंचे तो चचा परमार ने लाढ़-प्यार,शिकवे-शिकायतों का अखंड सिलसिला ऐसा शुरू किया कि बिना पलकें झपकाए रात सुबह में तब्दील हो गई। साढ़े सात बज चुके थे। सुबह की चाय पी रहे थे तभी बंधुवर भगवानसिंह हंसजी का फोन आया। हमने उन्हें अपना हाले दिल सुनाया। चचा परमार से बात करवाई। फिर ग्वालियर के दोस्तों के दनादन फोन आने शुरू हुए। रोमिंग के खयाल से रोम-रोम रोमांचित हो रहा था। और मैं फूट-फूटकर हंस रहा था। दोस्तों के फुनयाए प्यार से घबड़ाकर मोबाइल की बैटरी ने आत्महत्या कर ली। चार्जर की संजीवनी से मैंने उसे शुक्राचार्य की तरह फिर जिंदा कर लिया। और फिर दोपहर के भोजन के बाद हम रवाना हुए अमित चितवन के घर की तरफ। वे एटीक्विटी से लैस हमारा इंतजार कर रहे थे। रात ग्यारह बजे तक कविताबाजी हुई। फिर हमें सनक सवार हुई महाराज बाड़ा घूमने की। बारह बजे भी शहर का ये अंग जागता रहता है। खुशी से सराबोर होकर हमने तीन किलो गुड़ की गजक खरीदी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मशहूर ग्वालियर की गजक। भाई काजी तनवीर इतने भावुक हुए कि हमें छोड़ने ग्वालियर से दिल्ली ही चले आए। औप पहाड़गंज की राजा होयल में डेरा जमा लिया। यानीकि एक बार फिर मैं अपने घर के पास आकर घर जाने से बाल-बाल चूक गया। सुबह श्री बलराम जाखड़ के गए। वहां से लौटे तो आकाशवाणी की वरिष्ठ अधिकारी अलका पाठक से मिलने संसदमार्ग आकाशवाणी भवन चले गए। उन्होंने तत्काल कविताओं की रिकॉर्डिंग का फरमान जारी कर दिया। रिकॉर्डिंग टोडापुर में होनी थी। वहां पहुंचे तो लंच हो चुका थाय़ लंच टाइम सरकारी कर्मचारी को आदमी तो क्या यमराज भी नहीं ढूंढ़ सकता। बड़ी मशक्कत के बाद एक कोने में खाना खाते हुए प्रकाशजी बरामद हुए। ऐसी संवेदनशील अवस्था में वे हमारे हत्थे चढ़े कि हम उनका क्या बिगाड़ सकते थे। उन्होंने पूरे मनोयोग से भोजन-सुख प्राप्त किया और फिर हाथ धोने के लिए लंबे पर्यटन पर चले गए। हम भी हाथ धोकर पीछे पड़े हुए थे। सो उन्हें फिर ढूढ़ निकाला। इस के बाद रिकॉर्डिंग शुरू हुई। तीन बजे शाम को। साढ़े तीन बजे फारिग हुए।  और चैक मिलते-मिलते पोने चार बज गए। चार बजे काज़ी भाई को गरीब रथ से ग्वालियर जाना था। जेब के वेंटीलेटर पर रखा टिकिट आखिरी सांसें गिन रहा था। और फिर बाहर सड़क पर थ्रीव्हीलर के इंतजार के दौरान अखिर उसने दम तोड़ ही दिया। फिर होयल आना पड़ा और सुबह शताब्दी का टिकट बुक करवाया। अब कमसे कम रात होने तक मुझे फिर उनका साथ देना था।  दूरदर्शन जाकर कुछ लोगों से भुज-भेंट उत्सव मनाया गया और रात में फिर पीएन सिंह और अभिषेक मानव को जुटाकर एक लघु-लघु काव्यगोष्ठी आयोजित की गई। साढ़े बारह बजे पीएन सिंह की गाड़ी में दुबक कर मैं गाजियाबाद भाग निकला। साथ में अभिषेक मानवजी भी थे। किसी तरह घर के रेडार पर मंडराता मेरे शफर का हवाई जहाज सुरक्षित लैंड कर गया और मैं अबकी बार सचमुच घर आ गया।
आई-204,गोविंदपुरम,ग़ज़ियाबाद

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