भाई अभिषेक मानवजी.
आपकी विचारोत्तेजक पोस्ट पढ़ ली। खूब मजा आ रहा है। मैं पढ़ रहा हूं यह इस बात का सबूत है कि मैं मानव को पढ़ रहा हूं। मानव को पढ़ने के लिए मानव का मन और मानव की दृष्टि बहुत जरूरी है, जो इत्तफाक से मेरे भी पास है। पौराणिक पर्तीकों के जरिए समकालीन सरोकारों को रेखांकित करने की तकनीक आपके पास है। जो जन्मजात होती है। मेरी बधाई... इन पंक्तियों मैं बहुत जान है-इनसे ज्यादा आदर्शवादी तो मैं रावण को मानता हूँ. लक्ष्मण को शक्ति-बाण लगने पर उसकी लंका से ही वैद्य सुषेन आए. रावण ने विजय और धर्म में धर्म को चुना. उसकी सत्ता में जितना अधर्म था उतना ही आज भी है. रावण की बहन का तो नाक कान काट लिया गया. क्या यह आधुनिक भारत में आधी दुनिया के साथ बदतमीजी नहीं है ? राम मनुष्य होते तो छुपकर बाली की हत्या नहीं करते, आमने-सामने युद्ध करते. ये कौन सा आदर्श है – ”जेहिं विधि होय नाथ हित मोरा” ! वह यह भी कहता कि सीता ने ही कौन सा इतना बड़ा आदर्श निभा दिया कि उसे सती बोला जा रहा है ! लक्ष्मण के रेखा खींचने के बाद भी वह भाग गयीं रावण के साथ, क्योंकि उसे जंगल नहीं रावण का राज महल चाहिए था. सुख चाहिए था, जंगल में सुख कहाँ था ! यह सब सुनकर राम को दुःख तो बहुत होता था परन्तु सीता....
जयलोक मंगल..
पंडित सुरेश नीरव
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