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Wednesday, February 9, 2011
गीत
हमारे धर्मशाला प्रवास के मधुर क्षणों को छाया-बद्ध करने का, योगी जी का ये कलात्मक प्रयास स्तुत्य है| व्यतीत घड़ियां मानों पुन: जीवन्त हो उठी हों|
धन्यवाद!
मंजु ऋषि ‘मन’ ने अपनी रचना में एक सार्वभौम सत्य को अत्यन्त सहज एवं सरस अभिव्यक्ति दी है| साधुवाद!
इनकी ये रचना मेरे इस सय्यजात गीत हेतु प्रेरणा बनी है|
अत: ही संबोधित है:
प्रेम समिध, आहूत कामना, जीवन हुआ हवन है!
मन, तुझसे मिलने का मन है !!
नित चाहों को बांधे, साधे अगम राह पे चलना!
उतनी भोली रहे भावना, जितनी झेले छलना;
क्षण ये महा-सृजन का है, जो पीड़ा हुई सघन है!
मन, तुझसे मिलने का मन है !!
उड़ते सौरभ को क्या कोई, परिधि बांध पाई है!
गंध प्रीत की पतझर में भी मधु ऋतु ले आई है;
पुण्य यहीं पर तुझे खोजने, ये काँटों का वन है!
मन, तुझसे मिलने का मन है !!
दुरभिसंधि नक्षत्रों की कारक होती है दुःख का!
दुःख की वीथियों में ही मार्ग छिपा है सुख का;
सुख है तेरा साध्य अगर तो दुःख उसका साधन है!
मन, तुझसे मिलने का मन है !!
डॉ. मधु चतुर्वेदी
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