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Tuesday, March 1, 2011

ढलता दिन


दिन ढल गया
कब चला गया
कब आंख नम हुई
कब आंसू ढलक गया

काले सूरज का पैगाम
कर गया नींद हराम
दुखी है वर्तमान
और लंबी है शाम

न हुआ गर सवेरा
समझना लूट गया अँधेरा
दे कर एक रैन बसेरा
लूट गया चैन तेरा

फिर दिन चढेगा
तू आगे बढेगा
रोशनी के लिए लड़ेगा
खून का घूँट पीना पड़ेगा

अब अगर दिन ढल गया
और तू कुछ न कर सका
तुझे जो मिली नयी ज़िंदगी
उसको तू व्यर्थ कर गया !

दिन तो ढलेगा
गर मर-मर के तू जिएगा
हर बार एक आंसू
व्यर्थ ही बहेगा !!

मंजू ऋषि (मन)

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