आदरणीय तिवारीजी,
लेमार्क और डार्विन के सिद्धांतों के संबंध में जहां तक मेरी समझ है तो ये दोनों ही सिद्धांत एक दूसरे के पूरक हैं। विरोधी नहीं। यदि डार्विन भीतर की बात करते हैं यानि डीएनए की तो लेमार्क परिवेश की बात करते हैं। यानि की बाहर की। उनका जोर इस बात पर है कि बाहरी वातावरण,जिसमें कि जलवायु भी शामिल है भीतर के परिवर्तन का कारक बनता है। जैसे रेगिस्तान में रहनेवाले ऊंट और जिराफ की गर्दन इसलिए लंबी होती है क्योंकि उन्हें अपना भोजन ऊपर और ऊंचे पेड़ों से प्राप्त करना पड़ता है। रेगिस्तान में घास कहां मिलती है। इसलिए उनकी गर्दनें पीढ़ी-दर-पीढ़ी लंबी होती चली गईं। यानिकि डीएनए पर बाहरी वातावरण ने भी प्रभाव डाला। दूसरी तरफ आदमी की पूंछ इसलिए विलुप्त होती चली गई क्योंकि उसने पेड़ पर रहना ही बंद कर दिया। वैसे रडीमेंट्री पूंछ मानव के भी जन्म के समय होती है। यानीकि लेमार्क का सिद्धांत यूजएंड डिस्यूज की थ्योरी पर आधारित है। जबकि डार्विन सिर्फ भीतर के संसार पर ज्यादा जोर देते रहे हैं। कार्बनिक विकास के सिद्धांत में डार्विन और लेमार्क के साथ मेंडलीफ का नाम और भी ज्यादा सार्थक है जिसने कि अनुवांशिकी का सिद्धांत दिया। अनीताजी ने समग्रता में शोध किया है,इसलिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। और आपने उसे जयलोकमंगल के पाठकों तक पहुंचाया,इसके लिए हम आपके आभारी हैं।
पंडित सुरेश नीरव
अनीता गोयल के अनुसंधानों के बाद ( देखिये मेरा ताजा लेख) एक तरह से अब सूक्ष्म स्तर पर लामार्क का सिद्धान्त सही दिख रहा है। उऩ्होंने दर्शाया है कि आनुवंशिक गुण न केवल डी एन ए पर निर्भर करते हैं, वरन डी एन ए के आण्विक पर्यावरणीय परिवेश अर्थात आण्विक स्तर पर तापक्रम, दबाव, डी एन ए पर यांत्रिक तनाव, तथा अन्य जैविक सामग्रियों पर भी निर्भर करते हैं। इस पर्यावरणीय परिवेश का प्रभाव डी एन ए के अपना कोड पढ़ने और लिखने पर पड़ सकता है जो कि उसमें ऐसा उत्परिवर्तन कर सकता है, जो मूल डी एन ए में नहीं था।
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