यह ५००० हजार वर्ष पुराना ज्ञान किसी युग में चाहे कितना भी उपयोगी रहा हो , आज के त्वरित ब्रह्माण्ड में, जो स्वयं तेजी से बदल रहा है, और जब हमारा ज्ञान दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा है, तब इसका ऐतिहासिक महत्व चाहे जो हो, आज के जीवन के लिये यह अधिक प्रासंगिक नहीं हो सकता। आज तो हमें अंग्रेज़ी में लिखी पुस्तक 'अरबपति कैसे बनें ' अवश्य ही पढ़ना चाहिये!
ज़माना तेज़ी से बदल रहा है, यह तो माना किन्तु हमें यह अवश्य सोचना चाहिये कि ज़माना कैसा बदल रहा है, कही वह दुख तो नहीं बढ़ा रहा है !! आज संसार में विज्ञान और प्रौद्योगिकी जो परिवर्तन ला रही है, उसमें भौतिक या वस्तुओं में परिवर्तन बहुत तीव्र है, यथा कारें, फ़ोन, टी वी, कम्प्यूटर, चिकित्सा विज्ञान, जैव प्रौद्योगिकी, नैनो प्रौद्योगिकी तथा अन्य बहुल उत्पादन की मशीनें, बहुल विनाश के आयुध आदि आदि में तेजी से नए माडल आ रहे हैं। किन्तु जो सोच विचार में परिवर्तन है वह और भी अधिक मह्त्वपूर्ण है। क्योंकि जैसा मनुष्य सोचता है वैसा ही तो करता है।
उद्योगपति और व्यवसायी तो खूब सामान बेच रहे हैं और मोटा लाभ कमा रहे हैं। किन्तु उऩ्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि क्या वह सामान हमारे लिये लाभदायक है या नहीं। उनका मानना है कि यह तो ग्राहक का काम है कि वह सोचे कि उसे क्या खरीदना चाहिये और क्या नहीं। वे भूल रहे हैं कि अच्छे बुरे का विचार तो सारे समाज को करना है क्योंकि मनुष्य तो सामाजिक प्राणी है। वे भूल गए कि उनके ही दादा व्यापार करते समय यह मंत्र ध्यान में रखते थे - 'शुभ लाभ'! अर्थात लाभ तो हो किन्तु वह शुभ हो!!
मात्र अपने लाभ के लिये बढ़ाए गए बहुल उत्पादन से असंख्य भोग की वस्तुओं का विक्रय उद्योगपति के लिये अनिवार्य हो गया है। इसलिये सभी मनुष्यों को रंगीन माध्यम तथा सैक्सी माडलों की मदद से अनावश्यक वस्तुओं को आवश्यक सिद्ध कर खरीदने के लिये बाध्य किया जाता है, कुल मिलाकर सुख का सपना दिखाकर भोगवादी बनाया जा रहा है। भोगवाद नहीं भोग आवश्यक है, अर्थात जीव्क़न के लिये जो भोग आवश्यक है वही करना है, अन्य नहीं। और वे भोगवादी मधुर स्वप्न दु:स्वप्न बन रहे हैं। नोबेल पुरस्कृत अमेरिकी मनोवैज्ञानिक डैनी कानमैन ने लम्बे अनुसंधान बाद घोषित किया है, ' पिछले ५० वर्षों में सुविधाएं, साधन तथा समृद्धि तो बहुत बढ़े हैं, किन्तु सुख नहीं के बराबर बढ़े हैं !' और हम यह तो देख ही रहे हैं कि अपराध और उनकी नृशंसता बढ़ रही है; तथा कमजोरों का, चाहे वह कमजोर महिला हो या पुरुष, बालक हो या वृद्ध, शोषण बढा है। मिट्टी, जल और वायु का प्रदूषण, पर्यावरण का विनाश, जलवायु का विचलन और वैश्विक तापन आदि दुखदरूप से बढ़ रहे हैं। किन्तु टीवी और रंगीन माध्यम ने जैसे हमारी सोच पर कब्जा कर लिया है, और हमें इन महत्वपूर्ण विषयों की चिन्ता न कर हम क्षुद्र विषयों की चिन्ता करते हैं कि किसने कितने छक्के मारे या किस एक्टर का किस एक्टर से क्या चल रहा है। अत: आज इन समस्याओं के जितने भी हल सुझाए जा रहे हैं वे मूल में न जाकर सतही ही हैं, तब इसमें क्या आश्चर्य कि गर्वीले और समुन्नत विज्ञान और प्रौद्योगिकी के रहते हुए भी स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। समस्या के मूल में मनुष्य और प्रकृति का अंधाधुंध शोषण है। और इसके मूल में भोगवाद अर्थात अपने लिये अधिक से अधिक भोग करने की होड़ है। आपको आश्चर्य होगा कि इन समस्याओं के हल हमें इन ५००० वर्षों से अधिक पुराने ग्रन्थों - उपनिषदों, रामायण तथा श्रीमद्भगवद्गीता - में मिलते हैं।
अर्जुन युद्ध के विरोध में कितनी ऊँची बात कह रह था - वह अपने श्रद्धेय पितामह, गुरु आदि की हत्या नहीं करना चाहता, वह युद्धजनित लाखों हत्याएं आदि से उत्पन्न विभीषिका के दुष्परिणाम नहीं चाहता और मात्र अपने सुख के लिये असंख्य निर्दोष मनुष्यों को मारकर पाप नहीं करना चाहता। कृष्ण ने अर्जुन को पहिले उसके क्षत्रिय धर्म का स्मरण कराया कि अन्याय के विरुद्ध लड़ना उसका कर्तव्य है, क्योंकि सभी शान्तिपूर्ण विधियां असफ़ल हो चुकी थीं। -
"स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। धर्म्याद्धि युद्धात् श्रेय: अन्यद्क्षत्रियस्य न विद्यते।" (३१, २)
उसे मानसिक दु:ख तथा हत्याके अपराध से बचने के लिये वे उसे समझा चुके हैं कि आत्मा तो अमर है, यह शरीर ही जन्ममरणशील है, अत: युद्ध से उसे नहीं डरना चाहिये -
"न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्यं शाश्वतो अयं न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।" (२०,२)
फ़िर वे (३२,२) उसे स्वर्ग का लोप्भ दिखलाते हैं। कहते हैं कि यह युद्ध तो उसकी इच्छा से नहीं हो रहा है वरन उस पर लादा गया है, जैसे कि अपने आप ही क्षत्रियों के लिये यह स्वर्ग का द्वार खुल गया है, अत: सुखपूर्वक लाभ उठाना चाहिये -
"यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।"
जहां वह पाप के डर से युद्ध नहीं कर रहा था वहां वे उसे युद्ध न करने से उत्पन्न पाप का ही डर दिखलाते हैं। यदि वह धर्म युद्ध नहीं करेगा तब यश और अपना धर्म खोकर पाप को प्राप्त होगा -
"अथ चेत्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।तत: स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।" (३३,२)
फ़िर वे उसके पाप के डर का निवारण करते हैं - सुख और दु:ख, लाभ और हानि तथा जय और पराजय को समान मानकर युद्ध करो, तब तुऩ्हें पाप नहीं पड़ेगा -
सुख दु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि। (३८,२)
जब इतने पर भी अर्जुन का मोह नष्ट नहीं होता तब वे इस श्लोक के अर्थ को बुद्धियोग के द्वारा स्पष्ट करते हैं कि सुख दु:ख, लाभ हानि और जय अजय इन सभी को एक कैसे समझें। इसके लिये वे पहले (४२ -४५, २) वेदों की लुभावनी वाणी के द्वारा वेदों में वर्णित भोगों की प्रशंसा और अनुशंसा का विरोध करते हैं क्योंकि भोग तो मनुष्य के चित्त को हर लेते हैं, अर्थात उनकी बुद्धि ठीक से कार्य नहीं करती ।
यामिमां पुष्पितांवाचं प्रवदन्ति विपश्चित: वेद वादरता: पार्थ नान्यदस्तीति वादिन:।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्। व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते ।।
जब भोग नहीं करना है तब कर्म ही क्यों करना है, इसे समझाने के लिये वे आगे (४७,२) कहते हैं -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन। मा कर्मफ़लहेतुर्भूर्मा ते संगस्तु अकर्मणि।।
मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने तक ही है, कर्म के फ़ल में नहीं है। लाभ या हानि, जय या पराजय तथा सुख और दुख यह सभी कर्मों के फ़ल हैं, इन पर उसका अधिकार नहीं है। अत: उसे इन सभी फ़लों की चिन्ता न करते हुए कर्म तो करना ही हैं। और उसे समत्व योग में स्थित रहते हुए कर्म करना है अर्थात सिद्धि और असिद्धि को समान समझते हुए ही कर्म करना है, और सिद्धि और असिद्धि को समान समझते हुए कर्म करने से वही कर्म एक 'योग' बन जाता है - समत्व योग। इसी समत्व योग में स्थित होकर और बिना आसक्त हुए कर्म करना है क्योंकि यह योग कर्म बन्धनों से अर्थात सचमुच ही पाप से मुक्त करता है -
योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।सिद्ध्यसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।(४८,२)
इसमें स्थित होकर कर अर्थात सुख और दु:ख, लाभ और हानि तथा जय और पराजय को समान मानकर कर्म करने से पाप नहीं पड़ता (३८,२)- सुख दु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि। यह जादू कैसे?
पहले पाप समझ लें। पाप के अनेक अर्थ हैं, यहां जो अर्थ उपयुक्त है वह है जो कर्म सच्चे सुख से दूर ले जाए वह पापकर्म है। कर्म कैसे दुख देता है? हम जब कर्म करते हैं तब लाभ, जय या सुख आदि की प्राप्ति के लिये ही करते हैं। जब हमें कर्म करते समय कर्मफ़ल कर्म के लिये प्रेरित करते हैं तब वे कर्म के लिये प्रेरणा तो देते हैं किन्तु साथ ही चिन्ता और तनाव भी देते हैं। क्योंकि उसका परिणाम हमारे पूरे नियंत्रण में नहीं होता। कोई विद्यार्थी स्वर्ण पदक के लिये अच्छी मिहनत तो कर सकता है किन्तु इसकी कोई गारंटी नहीं कि उसे स्वर्ण पदक मिल ही जाएगा। इस कारण से कभी उसके मन में आशंकाएं उत्पन्न होती हैं, वह गैस पेपर खोजने दौ.ड सकता है, या गैसपेपर स्वयं बना सकता है, या स्मरण शक्ति बढ़ाने की दवा खोज सकता है। कौन शिक्षक उस पेपर को बना रहा है, तब उसका अनुमान लगाकर वैसी तैयारी कर सकता है। रात रात भर पढ़ने की कोशिश कर सकता है, इत्यादि। गारंटी न होने के अनेक कारण हो सकते हैं। एक कारण तो यह कि अनेक विद्यार्थी उस पदक के लिये परिश्रम करते हैं। दूसरा परीक्षक की जाँच भी पूरी तरह वस्तुपरक न होकर उसके मूड पर भी निर्भर करती है। किन्तु उन स्वर्णपदक प्रतियोगी विद्यार्थियों के मन में तो परिणाम के आने तक हलचल मची रहती है, तनाव बना रहता है। ऐसा नहीं है कि केवल परीक्षा का परिणाम ही चिन्ता देता है, वरन इसके पहले भी, कर्म के पूरे समय यह तनाव बना रहता है कि प्रश्नपत्र कैसा आएगा, अनेक विद्यार्थियों को परीक्षा- बुखार हो जाता है; लिखते समय तनाव बना रहता है कि कहीं गलती न हो जाए, कि सारे उत्तर उस कम समय में देना है इत्यादि। और जब नहीं मिला तब दुख होगा। फ़िर स्वर्ण पदक न मिलने के तरह तरह के कारण खोजे जाएंगे कि वह तो उस शिक्षक का चापलूस विद्यार्थी था, या उसने परीक्षक तक पहुँच लगा ली, आदि व्यर्थ की बातों में, अशान्ति में, समय बीतेगा। और यदि स्वर्ण पदक मिल गया तब तो लम्बे समय तक उसका अर्थात उसकी विजय की खुशी का तनाव बना रहता है, दुंदुभि पीटी जाती है, जो व्यर्थ का अहंकार पैदा करती है। वैसे भी, स्वर्ण पदक का यह अर्थ तो नहीं कि जीवन के अन्य कार्यों में भी उस व्यक्ति का कौशल सर्वश्रेष्ठ हो- अत: बात बात में घोषित किया जाता है कि "मैं साधारण व्यक्ति नहीं हूं, स्वर्ण पदक विजेता हूं।" पढ़ाई का उद्देश्य स्वर्ण पदक नहीं वरन ज्ञान प्राप्त करना होना चाहिये और सारे प्रयत्न उसी दिशा में होना चाहिये, इसमें किसी से प्रतियोगिता नहीं, वरन ज्ञान का आनन्द ही आनन्द है। इसीबात को समझाने के लिये मैं आज क्रिकैट का उदाहरण देना चाहता हूं। क्रिकैट खेलने का उद्देश्य अच्छी क्रिकैट खेलना होना चाहिये, पैसा कमाना नहीं। यदि पैसा ध्येय हो गया तब 'फ़िक्सिंग' तो होगी ही।
दृष्टव्य यह है कि कर्मफ़ल की चिन्ता किये बिना, अर्थात उस कर्म में आसक्ति के बिना कार्य पूरी क्षमता तथा योग्यता से करना है। इसके भी बाद यदि कार्य में असफ़ल हो गए तो कोई दुख नहीं क्योंकि जितना भी अच्छा किया जा सकता था वह कर्म किया गया था, उससे अधिक तो नहीं किया जा सकता था तब अफ़सोस किस बात का! अब उस असफ़लता से सीख़ लेकर आगे बढ़ना है, और उसे भूल जाना है। कर्मफ़लों के लिये काम करना और उऩ कर्मफ़लों को याद रखना यही तो कर्म बन्धन हैं। स्वर्ण पदक मिल गया तो उससे बँध गए और नहीं मिला तो भी बँध गए, यही एक सच्चे अर्थ में पाप है क्योंकि वह दुख देगा ही। वैसे एक बात यहां स्पष्ट हो रही होगी कि सुख भी बंधन है जैसा कि स्वर्ण पदक का मिलना भी बन्धन है। बन्धन ही तो पाप है। यदि किसी ने एक वर्ष एक करोड़ रुपया कमाया और बहुत खुश हुआ, किन्तु अब वह दूसरे वर्ष दो करोड़ चाहेगा, और इस तरह वह उस के चक्कर में और तद्जनित तनावों में फ़ँस जाएगा, यही सुख का बन्धन है और इसलिये पाप है। जिस तरह सुख और दु:ख दोनों ही पाप हैं, उसी तरह पाप और पुण्य दोनों ही आपको कर्म बन्धन में बाँधते हैं। पुण्य कर्म अच्छे कर्म तो होते हैं, किन्तु चूँकि आपने उऩ्हें 'पुण्य कमाने हेतु किया है वे आपको बांध लेंगे और अशान्ति देंगे।
य़ह कहकर कि चूंकि प्रत्येक कर्म के साथ सुख या दुख लगा है, कर्म ही नहीं करना है, गलत होगा क्योंकि बिना कर्म किये तो व्यक्ति जीवित ही नहीं रह सकता। तब करना क्या है? पुण्य कर्म तभी करिये कि जब आपको लगे कि वे तो आपके कर्तव्य हैं, जैसे कि गरीबों की सेवा इसलिये नहीं करना है कि पुण्य मिलेगा वरन इसलिये कि एक मानव होने के नाते वह आपका कर्तव्य है, उसमें आपकी इच्छा यश कमाने की भी नहीं है। यह सुख या दुख कर्म के साथ नहीं जुड़ा है, वरन आपकी उस कर्मफ़ल की इच्छा या आसक्ति के साथ जुड़ा है। यह कर्म फ़ल की आसक्ति छोड़ना है, वह कैसे? कर्मफ़ल के लिये कर्म न कर अपने कर्तव्यों के लिये कर्म करना है। विद्यार्थी का कर्तव्य है कि वह ज्ञानार्जन करे - यथा संभव यथा योग्य। गृहस्थ का कर्तव्य है कि वह परिवार का पालन पोषण करे यथा संभव यथा योग्य। इसके लिये परिवार की आवश्यकताओं, अपनी योग्यताओं और समाज में उपलब्ध संभावनाओं को समझना आवश्यक है। जिसके लिये बुद्धि के विकास की आवश्यकता है। उसी कार्य के लिये विद्यार्थी जीवन है, इसे व्यर्थ के आकर्षण में फ़ँसकर नहीं गवाँ देना है। वैसे बुद्धि का विकास सारे जीवन ही आवश्यक होता है, अत: गृहस्थ जीवन में भी बुद्धि लाभ करते रहना है, टी वी आदि जैसे व्यर्थ काम ही नही वरन हानिकारक कर्म में समय नहीं गँवाना है। टी वी मुख्यतया आपके समय पर कब्जा कर आपकी जेब खाली करता है, आपको सोचने और ज्ञान प्राप्त करने के लिये समय नहीं देता है, आपको व्यर्थ की जानकारियों में फ़ँसाता है कि आप भ्रम में रहें कि आपको और आपके बच्चों को बहुत ज्ञान है। टी वी आपको निष्क्रिय बनाकर अपना गुलाम बनाता है, आपको बीमारियां तो बोनस में मिलेंगी; आपके घर में फ़ूट डालता है। यह मैं इसलिये बतला रहा हूं कि जब आप टीवी देखना कम से कम कर देंगे तब ही आपको गीता या ऐसे उदात्त ग्रन्थों के पारायण का समय मिलेगा और आपकी बुद्धि का विकास होगा। निरासक्ति को समझाने के लिये गीता बार बार उसकी चर्चा करती है।गीता (१०, 5) में निरासक्ति का वर्णन है, “ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगं त्यक्त्वा करोति य:। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।"
जो व्यक्ति ब्रह्म में स्थित होकर और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है वह जल में स्थित कमलपत्र की तरह पाप से लिप्त नहीं होता। आप कर्म कर रहे हैं, पूरी क्षमता तथा योग्यता से किन्तु वह कर्म आप पर सवार नहीं है, जैसे कमलपत्र के ऊपर स्थित बिन्दु पूरी तरह से उस पर रहते हुए भी पूर्ण स्वतंत्र रहती है, वैसे ही आप भी कर्म कर्ते हुए भी कर्मबन्धन अर्थात कर्मफ़ल के बन्धन से अर्थात पाप से मुक्त हैं!! इसमें जो शान्ति है, यद्यपि उसकी भी कामना नहीं की गई थी, वह कामनापूर्ति पर होने वाला अर्थात बाँधने वाला सुख नहीं है वरन मुक्ति की शान्ति है, आपके हृदयाकाश के निर्मल होने की शान्ति है। सच्चिदानन्द की दिशा में ले जाने वाली शान्ति है। मात्र होने की चेतना के आनन्द की ही तो प्राप्ति करना है, वही शान्ति तो सच्चा सुख है जिसकी ओर हमें चलना है।
श्री अरबिन्द समझ गए थे कि बिना आत्मज्ञान हुए भारत को जो स्वतंत्रता मिलेगी न केवल वह अपूर्ण होगी क्योंकि उसमें भारतीय संस्कृति का प्रभाव भी अधूरा होगा, वरन वह अस्थाई भी हो सकती है। सच्ची स्वतंत्रता तो तभी होगी जब हम स्वयं अपने शरीर के बन्धनों से अर्थात भोगवाद से मुक्त होंगे और त्यागमय भोग पर आधारित जीवन जियेंगे। उस स्थिति में व्यक्ति केवल भलाई करता उपकार करता है, जैसा श्री अरबिन्द ने किया। श्री अरबिन्द को जेल में इस सत्य का दर्शन श्रीकृष्ण ने करा दिया था। इसीलिये वे सशस्त्र क्रान्ति को छोड़ कर योग की दिशा में चल दिये थे। वे जानते थे कि भारत की सच्ची स्वतंत्रता का अर्थ है मानव की स्वतंत्रता, संपूर्ण विश्व के मानवों की स्वतंत्रता जिसमें दुखों से मुक्ति भी सम्मिलित है। लोग कहते हैं कि गीता युद्ध की अनुशंसा करती है, वास्तव में गीता युद्ध का संदेश नहीं वरन कर्तव्य की प्रेरणा देती है , और यदि युद्ध करना कर्तव्य है तब समता के भाव से युद्ध भी करना है। यदि श्रीमद्भगवद्गीता के संदेश पर समस्त विश्व कार्य करे तब तो विश्व में युद्ध ही न हों और शान्ति का साम्राज्य छा जाए । किन्तु जब तक शेष विश्व गीता के संदेश पर कार्य नहीं करता है तब तक युद्ध होंगे, और भारत पर यदि युद्ध लादा जाए तब भारत को युद्ध से पीछे भी नहीं हटना है। दृष्टव्य है कि अब कृष्ण युद्ध की प्रेरणा न देकर कर्म करने की या कहें कर्तव्य करने की प्रेरणा दे रहे हैं, क्योंकि वे समझ गए हैं कि अर्जुन को युद्ध की आवश्यकता, सतही रूप से नहीं, वरन जीवन के उद्देश्यों और मूल्यों के मूल में जाकर समझना है। और इसके बाद वे अर्जुन से युद्ध करने के लिये गीता के अंत में भी नहीं कहते, वरन उसे प्राप्त ज्ञान के द्वारा सोच समझकर ही निर्णय लेने के लिये कहते है: इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया। विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छेसि तथा कुरु। (२.६३) जब उनके सारे संशय नष्ट हो जाते हैं, तब अर्जुन कहते हैं, (२.७३) “नष्टो मोह: स्मृति लब्धा त्वत्प्रासान्मायाचुत। स्थितोस्मि गत सन्देह: करिष्येवचनं तव ।। गीता वास्तव में हमें यही संदेश देती है कि ज्ञान के आधार पर निर्णय लेकर निष्काम भाव से केवल कर्तव्य करना चाहिये।
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