ग़ज़ल-
मिला था जो कभी हमदर्दियां जता के मुझे
वो घाव दे गया कितने गले लगा के मुझे
वो घाव दे गया कितने गले लगा के मुझे
ये चाहता हूं कि लौटा दे वो मिरा चेहरा
चुराया था जो कभी आईना दिखा के मुझे
मिला के आंख मुझी से चुरा लिया मुझको
रखा है याद के परदे में छुपा के मुझे
भटक के मैमने आएं ज्यों शेर के घर में
परेशां ऐसे हुए हादसे सता के मुझे
मैं खो गया था अंधेरों में बुझ-बुझा के कहीं
चराग उसने बनाया है फिर जला के मुझे
छिपे हैं जलते हुए लम्हों के दिए मुझमें
उजाला घर में कर इकबार तू बुला के मुझे
टहलने निकला है वो आज आसमानों में
सुलगती छांव में बेआसरा सुला के मुझे।
पंडित सुरेश नीरव
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