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Tuesday, May 3, 2011

लीबिया के बारे में

आजकल लीबिया बहुत चर्चा में है । मैंने भी लगभग ६ वर्ष वहां गुज़ारे थे.में पूर्वी लीबिया में, इजिप्ट की सीमा के पास था। तोब्रुक, अल बेदा , बेन्गाज़ी इत्यादि नगरों के सैनिक और सिविल अस्पतालों में काम किया। एक बात सब जगहों पर एक जैसी थी। लेबर रूम रात भर व्यस्त रहता था ,kई कई सिजेरियन करने पड़ते थे। सुबह मैं अपने अन्य सहयोगियों को फ़ोन करके पूछता था,
कितने फूल खिलाये तुमने , कहो मरुस्थल की धरती पर ?
और उसी वज़न पर पूरी कविता लिखी।

रंग क्षितिज पर तरह तरह के चमक रहे थे,
कितने फूल खिलाये तुमने,
कहो मरुस्थल की धरती पर,
आसमान में आज घटा ही घटा घिरी है,
कितना जल बरसाया तुमने आज मरुस्थल की धरती पर
देख रेत का सागर आगे, मैं तो थक कर बैठ गया था,
कितने क़दम बढ़ाये तुमने .आज मरुस्थल की धरती पर।
मैं तो याचक बन कर निकला, घर घर जाकर भिक्षा मांगी,
तुमने कितना अर्थ कमाया कहो मरुस्थल की धरती पर।
भाई में तो बार बार पथरीली डग पर पथ भूला था,
तुमने कितनी राह बनाई कहो मरुस्थल की धरती पर।
प्यास लगी तब ऊपर देखा, मरुथल में भी सागर देखा,
तुम कितनी सरिताओं के तट बैठे मरुथल की धरती पर।
हम तो जिन्हें छोड़ आये हैं, अब तक उन्हें याद करते हैं,
तुमने कितने सगे बनाए. कहो मरुस्थल की धरती पर।
एक बात तुमसे कहता हूँ, दोस्त मान कर -
कभी महल के ख्वाब देखना नहीं मरुस्थल की धरती पर।

विपिन चतुर्वेदी






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