नारीत्व का अभिशाप नारी की दुर्बलता बनकर रह गया. नारी के स्वभाव में कोमलता के आवरण में जो दुर्बलता छिप गयी है वही उसके शरीर की सुकुमारता बन गयी और वही दुर्बलता मनुष्य जीवन का अभिशाप रही और रहेगी . हमारे समाज ने उसे पाषाण प्रतिमा के समान सर्वदा एक रूप, एक रस, जीवित मनुष्य के स्पंदन, कम्पन और कार से रहित होकर जीने की आज्ञा दी है.जब कि प्राचीन काल से उसने त्याग, संयम तथा आत्मदान की आग में अपना सारा व्यक्तित्व और इच्छाएं तिल -तिल गलाकर उन्हें कठोर आदर्शों के साँचें में ढ़ालकर एक देवता कि मूर्ती गढ़ डाली, तब भी क्या संसार विस्मित हुआ. बहुत ही ज्ञानवर्धक एवं सामयिक आलेख है. बहुत-बहुत बधाई. जय लोकमंगल.
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