धूप के पांव में पाज़ेब नहीं होती,
फिर भी वह छम से उतरती है
घर की मुंडेर पर-
और बिखेर देती है किरणों के घुंघरु
दूर तलक!
रात के बदन से खुशबू नहीं आती –
पर न जाने क्यों उसकी –
एक छुअन से, महक उठती है रातरानी!
चांदनी के पास कोई चुम्बक नहीं होती,
फिर कैसे खींच लेती है वह सबको अपनी ओर?
हवा के हाथ में नहीं होती कोई बांसुरी-
फिर भी जब पास गुज़रती है,
कानों में घोल देती है, एक सुरीला राग!
भोर कोई जौहरी तो नहीं,
कोई जौहरी तो नहीं,
फिर भी, न जानें कहां से ले आती है,
गठरी भर मोती, और फिर बड़ी उदारता से टांक देती है
उन्हें घास के नर्म अंकुरों पर
तो, कौन है वह, जो पहना देती है धूप को पाज़ेब,
रात को देता है एक भीनी-भीनी खुशबू,
चांदनी पकड़ा देता है चुम्बक;
हवा को थमाता है बांसुरी,
और भोर को बना देता है जौहरी!
हां, शायद यह वही है, जो कहीं नहीं है;
और यहीं कहीं है!
डॉ. मधु चतुर्वेदी
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