तुमने काजल लगाया आँखों में
कहीं बरसात हो रही होगी।
चाँद जा कर छिपा घटाओं में
तेरी ही बात हो रही होगी।
तूने ज़ुल्फ़ों को यूँ बखेरा है
दिन में ही रात हो रही होगी।
उसने जलवों का ज़िक्र छेड़ा है
तू कहीं साथ ही रही होगी।
जशन उसने मनाया यारी का
फिर कोई घात हो रही होगी।
खेल मक़बूल से जो खेला है
शह पे यूँ मात हो रही होगी।
मृगेन्द्र मक़बूल
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