प्रियवर ,
जब मुझे जनसंदेश टाइम्स का संपादक बनाने का प्रस्ताव मिला, तभी मैंने तय कर लिया था कि कुछ अलग करना है. यह संयोग ही था कि मेरे अनुज हरे प्रकाश अपने आप साथ आ गये. इतने दिनों तक साथ काम करने के बाद मुझे लगता है कि जो मैं करना चाहता था, उसे हरे प्रकाश के सहयोग ने आसान कर दिया. समाचारपत्र का कोई भी संस्थान हो, कुछ न कुछ दिक्कतें तो रहतीं हैं. सबसे बड़ी कठिनाई तो यह है कि अधिकांश अखबार बिना किसी दृष्टिकोण के बस कुछ भी छापते रहने में यकीन रखते हैं. कुछ खबरें, कुछ लेख, कुछ सनसनी और कुछ बिकने वाला मसाला. इस अंधी दौड़ में तमाम संपादकों को यह याद ही नहीं रहता कि मनुष्य, समाज, जीवन और मूल्यों के परिष्कार को लेकर उनकी कोई जिम्मेदारी बनाती है. वे सिर्फ मोटी तनखाह वाले नौकर की तरह काम करते हैं, अपनी सुख-सुविधाओं के लिए लड़ते हैं और मस्त रहते हैं. इसी तर्क पर उनके अखबार भी चलाते हैं. बिकने वाली सामग्री होनी चाहिए, पैसा आना चाहिए, समाज और जीवन मूल्य जाएँ भाड़ में. बेशक इस अँधेरे में कुछ लोग अब भी दिया जलाये हुए हैं. वे धन्यवाद के पात्र हैं.
मैंने जब काम शुरू किया, मेरे दिमाग में बहुत साफ़ था, मुझे क्या करना है. समाचारपत्र के विमोचन के लिए असगर वजाहत साहब को बुलाकर मैंने संकेत भी दिया कि मैं किधर जाना चाहूंगा. मंच पर प्रसिद्ध कथाकार और मेरे अग्रज अखिलेश जी, वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की उपस्थिति भी मेरी मंशा को स्पष्ट करने वाली थी. मैं नहीं जानता कि मैं कितना कर पा रहा हूँ लेकिन तीन महीने में जो प्रतिक्रियाएं आयीं हैं, वे उत्साह बढाने वाली हैं. यह सब आप जैसे विद्वान लेखकों, कवियों, साहित्यकारों और चिंतकों के सहयोग के बिना असंभव होता. इसलिए मैं पूरी विनम्रता से आप का आभार व्यक्त करता हूँ.
निस्संदेह सब कुछ नया होने के कारण कुछ अव्यवस्थाएं रहीं. कुछ काम मैं चाहकर भी नहीं कर सका. आप की रचनाएँ प्रकाशित होकर आप तक नहीं पहुँच पायीं, आप को पारिश्रमिक समय से नहीं मिल सका. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं कि मैंने ऐसा सोच-समझ कर किया. व्यवस्था बनाने में समय लग रहा है. कई बार लगता है कि व्यवस्था बन गयी है, पर सब कुछ हाथ से सरक जाता है.कई बार कुछ अन्य सम्बंधित पक्षों की ओर से अपेक्षित सहयोग न मिलने की वजह से भी दिक्कतें आतीं रहती हैं. इस नाते कई बार मैं और हरे प्रकाश आप के विश्वास पर शायद खरे उतरते नहीं दिखाई पड़े हों लेकिन आप सच मानिए हम दोनों संस्थान के भीतर लगातार जूझते रहे. मैं बहुत जल्द हताश नहीं होता हूँ, हारता भी नहीं हूँ. यह बहुत आसान बात नहीं थी कि ऐसे समय में जब अखबार बाजार के उपकरण बनते जा रहे हैं, कोई संपादक सोचे कि वह साहित्य, कला, संकृति और विचार को केंद्र में लाने का काम करेगा, मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होगा. मैं इसके खतरों को भी समझता था, मैं अपने लिए संभावित खतरे को भी समझता था, फिर भी मैंने हिम्मत करके विपरीत दिशा में कदम बढाने का निश्चय किया. इसलिए कि मुझे भरोसा था कि जिस दृष्टि और सरोकार की लड़ाई मैं छेड़ने जा रहा हूँ, उसके लिए और लोग भी लड़ रहे हैं और वे हमारी मदद करेंगे. इसमें कोई दो राय नहीं कि आप ने बहुत उत्साह दिखाया, बहुत स्नेह दिया और पूरी मदद की. आप तक पहुँचने में हमें थोडा समय लग रहा है, कई बार आप को अखबार नहीं मिला, कई बार कुछ लेखकों के मन में संदेह भी पैदा हुआ कि शायद हम उन्हें उनके योगदान का मूल्य नहीं देंगे. पर मेरे मन में ऐसा कोई संदेह नहीं था. हो सकता है, मैं आप को बड़े, स्थापित और समृद्ध समाचारपत्रों की तरह बड़ी पारिश्रमिक राशि न दे पाऊँ पर नहीं दूंगा, ऐसा विचार किसी के मन में आया हो तो आया हो, मेरे मन में किसी पल नहीं आया.
हरे प्रकाश कई बार परेशान भी होते रहे कि लेखकों तक अखबार नहीं पहुँच रहा है, उनको पारिश्रमिक भेजने में विलम्ब हो रहा है, ऐसे में लोग लिखना बंद कर देंगे, मैं हर बार कहता कि होगा, हो जाएगा. व्यवस्थागत कारणों से कुछ चीजें रुकतीं रहीं. इ-पेपर बन जाने के बाद यह समस्या तो हल हो गयी कि लोग देख नहीं पा रहे हैं, उनकी रचनाएँ कैसे छपीं हैं, फिर भी अखबार हाथ में हो, यह हर लेखक चाहता है. बीच में व्यवस्था हो भी गयी लेकिन डेस्पैचर के बीमार पड़ जाने से फिर गड़बड़ा गयी. इसे ठीक करने की कोशिश कर रहा हूँ. आप को इस बात पर भरोसा न करने का कोई कारण नहीं होना चाहिए कि हम आप से जो कह रहे हैं, वह नहीं करेंगे. पर थोडा धीरज भी जरूरी है, क्योंकि कई बार गणित के फार्मूले की तरह सब-कुछ नहीं चलता है. हम सोचते हैं कि समाधान हो गया है, पर होता नहीं.
एक बात और, मैंने जनसंदेश टाइम्स का संपादक पद केवल नौकरी के लिए स्वीकार नहीं किया है, मैं इसे एक आन्दोलन की तरह देखता हूँ. जनपक्षधरता, प्रतिबद्धता और सम्यक दृष्टि के साथ छेड़ा गया आन्दोलन. मुझे खुशी है कि इस प्रकल्प में जिन लोगों ने धन लगाया है, वे भी हमारे काम की सराहना कर रहे हैं. कुछ लोग इसे किसी पार्टी विशेष से जोड़कर देखने की कोशिश करते रहते हैं, उन्हें मैं केवल इतनी सलाह दूंगा कि वे एक बार अपने दिमाग से सारे आग्रह निकालकर एक हफ्ते तक जनसंदेश टाइम्स पढ़ें, फिर निर्णय लें. कोई बहुजन समाज पार्टी में है, इसलिए वह कोई अच्छा काम नहीं कर सकता, इस दृष्टिकोण का कोई अर्थ नहीं है. मुझे आप के निरंतर सहयोग पर गर्व है, आप ने अपने योगदान से इस आन्दोलन को जीवन दिया, यह मेरे लिए उत्साहवर्धक है. मेरी सफलता का श्रेय आप को और मेरी असफलता की जिम्मेदारी मुझ पर. मुझे विश्वास है कि आप छोटे-मोटे कारणों से इस बड़े काम से हाथ नहीं खीचेंगे. मैं भरोसा दिला सकता हूँ कि आप का समुचित सम्मान होगा.
अभी ७ फरवरी से १२ अप्रैल तक के लेखों का पारिश्रमिक भेजा जा रहा है. शीघ्र ही हम आगे के योगदान का पारिश्रमिक भी भेज देंगें. मुझे उम्मीद है कि जल्द ही मैं ऐसी व्यवस्था बना लूँगा कि जिस अंक में आप के लेख, कविता, कहानी हों, वह आप तक पहुंचे, साथ ही हर सप्ताह पारिश्रमिक भी पहुंचता रहे. आशा है आप सहयोग बनाए रखेंगे.
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डा. सुभाष राय
संपादक,
हिंदी दैनिक जनसंदेश टाइम्स
कसमंडा अपार्टमेंट्स
2-पार्क रोड, हजरतगंज, लखनऊ
फोन-7376666664
जब मुझे जनसंदेश टाइम्स का संपादक बनाने का प्रस्ताव मिला, तभी मैंने तय कर लिया था कि कुछ अलग करना है. यह संयोग ही था कि मेरे अनुज हरे प्रकाश अपने आप साथ आ गये. इतने दिनों तक साथ काम करने के बाद मुझे लगता है कि जो मैं करना चाहता था, उसे हरे प्रकाश के सहयोग ने आसान कर दिया. समाचारपत्र का कोई भी संस्थान हो, कुछ न कुछ दिक्कतें तो रहतीं हैं. सबसे बड़ी कठिनाई तो यह है कि अधिकांश अखबार बिना किसी दृष्टिकोण के बस कुछ भी छापते रहने में यकीन रखते हैं. कुछ खबरें, कुछ लेख, कुछ सनसनी और कुछ बिकने वाला मसाला. इस अंधी दौड़ में तमाम संपादकों को यह याद ही नहीं रहता कि मनुष्य, समाज, जीवन और मूल्यों के परिष्कार को लेकर उनकी कोई जिम्मेदारी बनाती है. वे सिर्फ मोटी तनखाह वाले नौकर की तरह काम करते हैं, अपनी सुख-सुविधाओं के लिए लड़ते हैं और मस्त रहते हैं. इसी तर्क पर उनके अखबार भी चलाते हैं. बिकने वाली सामग्री होनी चाहिए, पैसा आना चाहिए, समाज और जीवन मूल्य जाएँ भाड़ में. बेशक इस अँधेरे में कुछ लोग अब भी दिया जलाये हुए हैं. वे धन्यवाद के पात्र हैं.
मैंने जब काम शुरू किया, मेरे दिमाग में बहुत साफ़ था, मुझे क्या करना है. समाचारपत्र के विमोचन के लिए असगर वजाहत साहब को बुलाकर मैंने संकेत भी दिया कि मैं किधर जाना चाहूंगा. मंच पर प्रसिद्ध कथाकार और मेरे अग्रज अखिलेश जी, वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की उपस्थिति भी मेरी मंशा को स्पष्ट करने वाली थी. मैं नहीं जानता कि मैं कितना कर पा रहा हूँ लेकिन तीन महीने में जो प्रतिक्रियाएं आयीं हैं, वे उत्साह बढाने वाली हैं. यह सब आप जैसे विद्वान लेखकों, कवियों, साहित्यकारों और चिंतकों के सहयोग के बिना असंभव होता. इसलिए मैं पूरी विनम्रता से आप का आभार व्यक्त करता हूँ.
निस्संदेह सब कुछ नया होने के कारण कुछ अव्यवस्थाएं रहीं. कुछ काम मैं चाहकर भी नहीं कर सका. आप की रचनाएँ प्रकाशित होकर आप तक नहीं पहुँच पायीं, आप को पारिश्रमिक समय से नहीं मिल सका. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं कि मैंने ऐसा सोच-समझ कर किया. व्यवस्था बनाने में समय लग रहा है. कई बार लगता है कि व्यवस्था बन गयी है, पर सब कुछ हाथ से सरक जाता है.कई बार कुछ अन्य सम्बंधित पक्षों की ओर से अपेक्षित सहयोग न मिलने की वजह से भी दिक्कतें आतीं रहती हैं. इस नाते कई बार मैं और हरे प्रकाश आप के विश्वास पर शायद खरे उतरते नहीं दिखाई पड़े हों लेकिन आप सच मानिए हम दोनों संस्थान के भीतर लगातार जूझते रहे. मैं बहुत जल्द हताश नहीं होता हूँ, हारता भी नहीं हूँ. यह बहुत आसान बात नहीं थी कि ऐसे समय में जब अखबार बाजार के उपकरण बनते जा रहे हैं, कोई संपादक सोचे कि वह साहित्य, कला, संकृति और विचार को केंद्र में लाने का काम करेगा, मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होगा. मैं इसके खतरों को भी समझता था, मैं अपने लिए संभावित खतरे को भी समझता था, फिर भी मैंने हिम्मत करके विपरीत दिशा में कदम बढाने का निश्चय किया. इसलिए कि मुझे भरोसा था कि जिस दृष्टि और सरोकार की लड़ाई मैं छेड़ने जा रहा हूँ, उसके लिए और लोग भी लड़ रहे हैं और वे हमारी मदद करेंगे. इसमें कोई दो राय नहीं कि आप ने बहुत उत्साह दिखाया, बहुत स्नेह दिया और पूरी मदद की. आप तक पहुँचने में हमें थोडा समय लग रहा है, कई बार आप को अखबार नहीं मिला, कई बार कुछ लेखकों के मन में संदेह भी पैदा हुआ कि शायद हम उन्हें उनके योगदान का मूल्य नहीं देंगे. पर मेरे मन में ऐसा कोई संदेह नहीं था. हो सकता है, मैं आप को बड़े, स्थापित और समृद्ध समाचारपत्रों की तरह बड़ी पारिश्रमिक राशि न दे पाऊँ पर नहीं दूंगा, ऐसा विचार किसी के मन में आया हो तो आया हो, मेरे मन में किसी पल नहीं आया.
हरे प्रकाश कई बार परेशान भी होते रहे कि लेखकों तक अखबार नहीं पहुँच रहा है, उनको पारिश्रमिक भेजने में विलम्ब हो रहा है, ऐसे में लोग लिखना बंद कर देंगे, मैं हर बार कहता कि होगा, हो जाएगा. व्यवस्थागत कारणों से कुछ चीजें रुकतीं रहीं. इ-पेपर बन जाने के बाद यह समस्या तो हल हो गयी कि लोग देख नहीं पा रहे हैं, उनकी रचनाएँ कैसे छपीं हैं, फिर भी अखबार हाथ में हो, यह हर लेखक चाहता है. बीच में व्यवस्था हो भी गयी लेकिन डेस्पैचर के बीमार पड़ जाने से फिर गड़बड़ा गयी. इसे ठीक करने की कोशिश कर रहा हूँ. आप को इस बात पर भरोसा न करने का कोई कारण नहीं होना चाहिए कि हम आप से जो कह रहे हैं, वह नहीं करेंगे. पर थोडा धीरज भी जरूरी है, क्योंकि कई बार गणित के फार्मूले की तरह सब-कुछ नहीं चलता है. हम सोचते हैं कि समाधान हो गया है, पर होता नहीं.
एक बात और, मैंने जनसंदेश टाइम्स का संपादक पद केवल नौकरी के लिए स्वीकार नहीं किया है, मैं इसे एक आन्दोलन की तरह देखता हूँ. जनपक्षधरता, प्रतिबद्धता और सम्यक दृष्टि के साथ छेड़ा गया आन्दोलन. मुझे खुशी है कि इस प्रकल्प में जिन लोगों ने धन लगाया है, वे भी हमारे काम की सराहना कर रहे हैं. कुछ लोग इसे किसी पार्टी विशेष से जोड़कर देखने की कोशिश करते रहते हैं, उन्हें मैं केवल इतनी सलाह दूंगा कि वे एक बार अपने दिमाग से सारे आग्रह निकालकर एक हफ्ते तक जनसंदेश टाइम्स पढ़ें, फिर निर्णय लें. कोई बहुजन समाज पार्टी में है, इसलिए वह कोई अच्छा काम नहीं कर सकता, इस दृष्टिकोण का कोई अर्थ नहीं है. मुझे आप के निरंतर सहयोग पर गर्व है, आप ने अपने योगदान से इस आन्दोलन को जीवन दिया, यह मेरे लिए उत्साहवर्धक है. मेरी सफलता का श्रेय आप को और मेरी असफलता की जिम्मेदारी मुझ पर. मुझे विश्वास है कि आप छोटे-मोटे कारणों से इस बड़े काम से हाथ नहीं खीचेंगे. मैं भरोसा दिला सकता हूँ कि आप का समुचित सम्मान होगा.
अभी ७ फरवरी से १२ अप्रैल तक के लेखों का पारिश्रमिक भेजा जा रहा है. शीघ्र ही हम आगे के योगदान का पारिश्रमिक भी भेज देंगें. मुझे उम्मीद है कि जल्द ही मैं ऐसी व्यवस्था बना लूँगा कि जिस अंक में आप के लेख, कविता, कहानी हों, वह आप तक पहुंचे, साथ ही हर सप्ताह पारिश्रमिक भी पहुंचता रहे. आशा है आप सहयोग बनाए रखेंगे.
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डा. सुभाष राय
संपादक,
हिंदी दैनिक जनसंदेश टाइम्स
कसमंडा अपार्टमेंट्स
2-पार्क रोड, हजरतगंज, लखनऊ
फोन-7376666664
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