हर लफ्ज की खनकन और
लचकन में
बजती है ग़ज़ल की
झांझर
-पंडित सुरेश नीरव
अमित चितवन की ग़ज़लें सामाजिक सरोकारों से लैस आज
के दौर की ऐसी जरूरी ग़ज़लें हैं जो बाजार की हुकूमत से अपने ही घर में बेदखल होते
आदमी को बहुत गहरे तक खंगालने की कुव्वत रखती हैं। घर में घर जैसा नजारा
नहीं...ऐसा लगता है कि ये घर हमारा नहीं...कितना खोमोश दर्द होता है अपने ही घर
में बेघर हो जाने का। ऐसा लगता है मानो मन के अंधे कुएं में बड़ी शिद्दत के साथ
कोई सीढ़ियां चढने की कोशिश कर रहा है मगर बार-बार गिर जाता है। ये ग़ज़लें हाथ
थामकर उसे अंधेरे से बाहर निकालती हैं। जहां वो खुले आकाश में..ठंडी हवाओं के साथ
टहल करता है। इन ग़ज़लों से गुजरते हुए हमारे अपने सोए हुए वजूद से ज़िंदगी ऐसे
निकलकर आती है जैसे दरख्तों से पत्ते निकलते हैं। हवा के आंचल में खुशबुएं गांठ
बांधने लगती हैं। ख्वाबों के घर में नींद जागने लगती है। ऐसी तराश और कसावट... कि
हर लफ्ज की खनकन और लचकन में ग़ज़ल की झांझर की ग़िनायत और थरथराहट रक्स करती-सी
लगती है। सोच के उस मुकाम तक ले जाती हैं अमित चितवन की ये ग़ज़लें जहां ये महसूस
होता है कि समय से बाहर का कोई समय है जो इन ग़ज़लों से बावस्ता है। वो समय जो न
घड़ी से बंधा है और न किसी और कोई पाबंदी से। जहां दिल जिस्म की वादियों में खुद
ही खुद को लापता कर देने का मासूम फैसला ले बैठता है। कुल मिलाकर जो शाइस्तगी, नर्मगुफ़्तारी,
मुहब्बत और वज़ादारी अमित की सरिश्त में शामिल हैं वे सारी-की-सारी खूबियां असरी
तकाज़ों के साथ ग़ज़ल के आंगन में छोटे-छोटे बच्चों की तरह ठंडी हवाओं के साथ दौड़-धूप
करने निकल पड़ी हैं। ग़ज़ल की इस पुरखुलूस आवाज़, पुरसोज़ जज़बात और पुरतासीर लहजे
को मेरी कलम और कलाम के सैंकड़ों सलाम...
पंडित सुरेश नीरव
(अंतर्राष्ट्रीय कवि
एवं पत्रकार)
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