जरा सोचिए |
जयलोक मंगल के पाठकों के लिए विशेष
अल्पसंख्यक टाइम्स के
डॉक्टर रंजन ज़ैदी की एक बहुत खूबसूरत नज्म
आओ
देखो---/मेरे शो-केस में वो बैठा है/ सांस को रोके हुए/ रूह को छोड़े
हुए/वो मेरे ख्वाब में रोज़ आता था/मेरे कंधों पे/मेरे सिर पे वो चढ़ जाता
था/बारहा चोंच से वो गाल को छू लेता था/मैं समझता था वो पैगामे-मुहब्बत
बनकर/ अजनबी देस से उड़कर मेरे पास आता है/मेरे एहसास को गरमाता
है/रफ्ता-रफ्ता वो मेरी रूह का हिस्सा बनकर/ मेरी हर सांस में खुशबू का
तसव्वुर बनकर /वो कुहासे की तरह घुलता गया, बर्फ बन जमता गया/और मैं रेत
के सहरा में बिखरता गया/ उड़ता गया/एक दिन वो मेरे आँगन में गिरा खूँ बनक[र/
दौड़कर मैंने उसे अपनी हथेली पे लिया/ उसने बस इतना कहा---/माँ मेरी आग के
सहरा में बहुत रोती है/रोज़ वो खून से बिस्तर की हिना धोती है/ उससे कहना
मेरे मोहसिन कि मैं आ जाऊंगा/अबकी आऊंगा मेरे हाथ में परचम होगा/ वादिये-रेग
में भी अम्न का मौसम होगा / और.....परिंदों को न मरने दूंगा/अब न आँगन में
कबूतर है. न खूं की छींटें/ बस फ़क़त नज़्म है, एहसास है, ज़ैतून की
शाख/हमने शोकेस में इन सबको सजा रखा है./ आओ देखो----/ इसी शोकेस में वो
बैठा है.<> 09415111271 alpsankhyaktimes94gzb.com
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