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Sunday, January 8, 2012

मैं ज़िंदगी के ठहर जाने का का तरफदार नहीं



छात्र जीवन में लिखी गई एक नज़्म आप से शेयर करने का मन है ,पता नहीं कैसी है पर पुरानी फाइलों मे दफ्न इन पंक्तियों का जीर्णोद्धार करने का विचार आ गया तो पेस कर रहा हूं  --
ज़िंदगी के चलते रहने में यकीं है ,मुझको
मैं ज़िंदगी के ठहर जाने का का तरफदार नहीं
सपनों के खंडहर में गुज़ारी नहीं रातें जिसने
ज़माने की रंगीनियों का वह हकदार नहीं
मेरे दोस्त मेरी बरबादी पे आंसू न बहा
मेरे गम,मेरे दर्द,मेरी नज़्मों में मुसकुरायेंगे
तेरी हर बात गज़ल का मिसरा होगी
तेरे अंदाज़ मेरे नगमों में बिखर जायेंगे
रूबाइयों में बयां होंगी खामोश निगाहें तेरी
मेरे शेरों में तेरे बेज़ुबां दर्द सिमट आयेंगे
यूं ज़ख्मी हूं ,कमज़ोर ,हूं
सुझाई भी नहीं देता मगर
मैं अब भी गिर के संभल सकता हूं
सांस बस टूटने टूटने को है
पर मैं मौत से अब भी नज़र मिला सकता हूं
मेरे दोस्त मुझसे हमदर्दी न जता
ये तरस खाती निगाहें
मुझे अहसास-ए-बेचारगी कराती हैं
मेरे वज़ूद पे लगाती हैं सवालिया निशान
मुझे खुद की नज़रों में ही गिराती हैं
मेहरबानी करके मेरे हालात पे तरस मत खा
देख मैं तेरे बगैर भी पूरी शान से जीता हूं
पर मेरे कानों मे गूंजती हैं तेरी ही बातें
जब तनहाई में खामोश बैठा होता हूं
कौन कहता है तू ज़ुदा हो गई है मुझसे
तू तो मेरी रूह में समोये जाती है
बंद आंखो में कभी, तो खुली आंखों में
तू ख्वाबों में आ-आ के मुस्कराती है
ये किताबें,ये दीवान,ये रिसाले ये नावल
सब अपनी ही तरह से
 तेरी बातें मुझसे करते हैं
तेरे तसव्वुर में भरते हैं नये-नये रंग
तेरी यादों के फूल हर वक्त झरते हैं
मेरे दोस्त इस तनहाई पे अफसोस न जता
तनहाई में ही तो मैं बात तुझसे करता हूं
किसी और का हो जाऊं ये मशवरा ना दे
अब तो इस खयाल से भी डरता हूं
ज़िंदगी को पूरी शिद्दत से जिया है मैने
मैं टुकडे-टुकडे जीने का तरफदार नहीं
सपनों के खंडहर में गुज़ारी नहीं राते जिसने
ज़माने की रंगीनियों का वह हकदार

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