ग़ज़ल
ग़ज़लों में जी
रहा हूं मैं अपने को जोड़कर
लफ्जों में
आंसुओं की जगह छोड़-छोड़कर
गुमनाम ही
रहेंगे ये पत्थर तो हाथ के
बिखरूंगा
कांच-सा मैं खनक रोज़ छोड़कर
सोचा ही था कि
तुझ पे मैं कोई ग़ज़ल कहूं
अल्फाज़ आ रहे
हैं हाथ जोड़-जोड़कर
एहसास में हैं
सिलवटें माथे पे है शिकन
निकले हैं ख्वाब
नींद को यूं तोड़-तोड़कर
आखिर में उसने
यादों की माला बना ही ली
अश्कों के
मोतियों को कहीं जोड़-जोड़कर।
पंडित सुरेश नीरव
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