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Saturday, October 20, 2012

ठिकाना नहीं पाया

एक पुरानी कविता.....

जीवन का सफर मैं जान नहीं पाया
इंसा होके भी इंसान को पहचान नहीं पाया

प्यार करने लगा कुछ खुद से ही इस तरह
रिश्तों की गहराई को मान नहीं पाया

सोचा था कट जाएगी हँसते गाते यूं ही
जीवन की कड़वी सच्चाई को जान नहीं पाया

बचपन जवानी गुजरा हाथ मलते मलते
सारी उम्र भी मैं कुछ कमा नहीं पाया

याद आया कोई अपना भी है दौरे जहान में
वो पास तो है पर अपना बना नहीं पाया

समय के साथ बीत गयी जीवन की कहानी
गैर तो गैर थे अपनों को भी पा नहीं पाया

मन उड़ता रहा आवारा पक्षी की तरह
कहीं दो पल का ठिकाना नहीं पाया

जीवन का सफर मैं जान नहीं पाया
इंसा होके भी इंसान को पहचान नहीं पाया।
-मनीष गुप्ता

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