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Monday, December 10, 2012

ग़ज़लें ये कहती हैं मैं उनका व्यापार करूँ.

अशोक रावत की ग़ज़लें

आख़िर मौसम की मनमानी क्यों स्वीकार करूँ.
क्यों मैं फूलों से नफ़रत काँटों से प्यार करूँ.
क्या जैसी दुनिया है वैसा ही हो जाऊँ मैं,
और इन आँधी तूफ़ानों की जै-जैकार करूँ.

काग़ज़ की नावों को लेकर माँझी बैठे हैं,

इनके बूते मैं दरिया को कैसे पार करूँ.

इस मुद्दे पर मैं अपनी ग़ज़लों के साथ नहीं,

ग़ज़लें ये कहती हैं मैं उनका व्यापार करूँ.

मेरे अधिकारों को लेकर सब के सब चुप हैं,

अपनों से ही झगड़ा आखिर कितनी बार करूँ.

अपने हाथों के पत्त्थर तो मैंने फ़ेंक दिये,

लोगों को चुप रहने पर कैसे तैयार करूँ.

गाँधी के हत्यारे भी हैं गाँधी टोपी में,

इनके प्रस्तावों को मैं कैसे स्वीकर करूँ।
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