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Sunday, August 2, 2009

ग़ज़ल

दरबारी मरासिम का किसे होश है भैया
कुटिया में सुदामा की चले आए कन्हैया

कुछ ख़ून के कुछ ख़ाक के होते हैं तक़ाज़े
क्या जान से प्यारी न थी टीपू की रूक़ैया

कुर्बां तिरे होटों पे हैं जन्नत के शिगूफ़े
सदक़े तिरी क़ामत पे उतरती है सुरैया

दो रोज़ भी शाख़ों से जुड़े रह नहीं सकते
पतझड़ को बहुत भाता है फूलों का रवैया

उर्दू तो बहरहाल ग़ज़लयाब मिलेगी
लाहौर हो बंगाल हो या झुमरीतलैया

हाज़िर हूँ तिरे ज़हरे-कुदूरत को पचाने
बिस्मिल्लाह मिरे दोस्त मिरे प्यारे ततैया

दौलत से 'सलीम' अपने सितारे नहीं मिलते
टिकता ही नहीं है मिरे हाथों में रुपैया

- सरदार सलीम
हैदराबाद, आन्ध्रप्रदेश

प्रस्तुतकर्ता : राजमणि

4 comments:

ओम आर्य said...

aapaki lekhani ke liye kuchh kahana surj ko diya dikhane jaisa mujhe lag raha hai ......

Unknown said...

bahut khoob...
nihaal kar diya......

उर्दू तो बहरहाल ग़ज़लयाब मिलेगी
लाहौर हो बंगाल हो या झुमरीतलैया

हाज़िर हूँ तिरे ज़हरे-कुदूरत को पचाने
बिस्मिल्लाह मिरे दोस्त मिरे प्यारे ततैया

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परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया लिखा है बधाई।

नीरज गोस्वामी said...

दो रोज़ भी शाख़ों से जुड़े रह नहीं सकते
पतझड़ को बहुत भाता है फूलों का रवैया

बहुत खूब कहा है...वाह...
नीरज