
आदरणीय नीरवजी
आपने साहित्य में चल रही प्रतिबद्धता की बहस की बड़ी बारीक पड़ताल की है और उन साहित्यकारों की नियत और नियति पर अच्छी धुलाई की है जो अपने लाभ के लिए प्रतिबद्धता की बातें करते हैं। आपने ठीक फरमाया है कि-वे समझदार हैं और जानते हैं कि तात्कालिक फायदों के बटोर लेने में ही ज्यादा फायदा है बजाय भविष्यगत नुकसान के। इसलिए उन्होंने उस नुकसान की तरफ से मुंह ही मोड़ लिया है।आनेवाले समय में मुल्यांकन होगा कि नहीं और होगा तो हमें किस श्रेणी में रखा जाएगा इस चिंता में दुबले होने के बजाय यथाशीघ्र अपना मूल्यांकन,सम्मान और पुरस्कार प्राप्त करना ही जिन्होंने श्रेयस्कर समझा है वे उत्साहपूर्पक किसी-न-किसी वैचारिक मठ से जुड़ ही जाते हैं।जहां उन्हें विरासत में एक गढ़ी हुई भाषा मिल जाती है,तैयार मुहावरे मिल जाते हैं। एक प्रचलित भाषा से लैस समीक्षकों और रचनाकारों की फौज मिल जारी है,जिसके बल पर वर्ग विशेष में उन्हें पहचान भी आसानी से मिल जाती है। अपने बूते पर अस्तित्व की लड़ाई लड़ने में हारने और जीतने दोनों की संभावना रहती है मगर किसी कबीले की सदस्यता ले लेने पर हार का भय समाप्त हो जाता है। क्योंकि तब पराजय व्यक्तिगत न होकर पूरे कबीले की मानी जाती है। और फिर लाभ चाहे विचारधारा के नाम पर ही मिले लाभ ही होता है। जो अंततः व्यक्तिगत ही होता है। इसलिए प्रतिबद्धता का सीधा मतलब है विचारधारा से जुड़े व्यक्ति का गारंटीशुदा लाभ और साहित्य का नुकसान।
इस सारगर्भित साक्षात्कार के लिए आप साधुवाद के पात्र हैं।
डाक्टर प्रेमलता नीलम
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