पंडित सुरेश नीरवजी,
आपका साक्षात्कार साहित्य के तमाम ज्वलंत संदर्भों को उकेरता है। आज इन मुद्दों पर बहस बहुत जरूरी है। आपने सही कहा है कि-
मगर प्रतिबद्धता किसके साथ। यह प्रतिबद्धता होनी चाहिए विचार के साथ,मूल्यों के साथ। सृजन के लिए यही जरूरी है। मूल्यगत प्रतिबद्धता एक व्यापक अनुभव संसार को सृजन में उतारती है। साहित्य को एक दृष्टि देती है, जबकि विचारधारा से की गई प्रतिबद्धता एक विशेष दृष्टि से साहित्य को देखती है। सृष्टि से दृष्टि का विकास हो यह तो ठीक है मगर सृष्टि को देखने का पूर्वग्रह एक किस्म का बौद्धिक दीवालियापन है। मानसिक विकृति है। और अपने अनुभव संसार को बौना करने का भावुक हठ है। इसके अलावा और कुछ नहीं।
शायद इससे नई पीढ़ी को कुछ प्रेरणा मिले। मेरी यही कामना है।
डाक्टर मधु चतुर्वेदी
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