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Saturday, October 16, 2010

डा.रमा द्विवेदी की ग़ज़ल-

 किसी से क्या बताएं कि क्या-क्या हम छिपाते हैं
जमाने को दिखाने को हंसी होंठों पर लाते हैं

बने खुदग्ज वे इतने उन्हें लब चाहिए लेकिन
वफा उनकी है बस इतनी कि बिन सावन रुलाते हैं

फकत उनके रिझाने को दिखाते नूर चेहरे पर
कहीं वे रूठ न जाएं ये गम हमको सताते हैं

तृषा अपनी बुझाने को बढ़ाते तिश्नगी मेरी
नहीं मिलता है स्वातिजल पिऊ-पिऊ रट लगाते हैं

यही ख्वाहिश रही दिल की अंजुरी में चांद आ जाए
निशा रोई है शबनम बन सुबह वे मुस्कराते हैं।
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