
अक्सर ब्लाग को या फेसबुक को लोग बहुत अधिक गंभीर चर्चा का मंच नहीं मानते हैं। मगर ने इस मिथ को तोड़ा है और तमाम गंभीर मुद्दों पर इसने समय-समय पर चर्चा की है। अभी पिछले दिनों जो आस्था को लेकर विचार श्री प्रशांत योगीजी ने प्रस्तुत किए और फिर कुछ दिन बाद श्री विश्वमोहन तिवारी जी ने आस्था की जो शास्त्रीय विवेचना की तो दोनों के विचारों को पढ़कर लगता है कि दो विपरीत धाराओं का प्रतिनिधित्व एक ही विषय पर हो रहा है मगर जिस कुशलता से पंडित सुरेश नीरव ने इस चर्चा का सार-संक्षेपण किया है वह एक तीसरे आयाम को प्रशस्त करता है, जिज्ञास को शांत भी। यथा-
निष्कर्ष शब्दों में आता ही नहीं है। वह तो मौन में उतरता है.। इसलिए शायद स्यातवाद का उदगम होता है। जहां हर बात होसकता है और नहीं भी हो सकता है कि मुद्रा में कही जाती है। शायद यह सत्य हो, शायद वह सत्य हो.।परहेप्स की भाषा ही दर्शन का स्वभाव है। निर्णय की बात पूछने पर तथागत मौन में उतर जाते हैं। यह मौन ही आस्था है। जिसे अनुभव किया जाता है। कहा नहीं जाता। यह भोग्य है। कथ्य नहीं है। अनुभूति है,आस्था। इसे महसूसा जाता है। गूंगे का गुड़ है शायद आस्था।ब्लाग पर एक अच्छी और सारगर्भित चर्चा के लिए मैं श्री योगीजी,तिवारीजी और नीरवजी तीनों के प्रति अपने आभार व्यक्त करती हूं।
डाक्टर प्रेमलता नीलम
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