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Thursday, November 11, 2010

मदमस्त हुआ फिरता पगला



दर्द की भाषा और परिभाषा को कौन समझ पाता है,सिवा कवि के। इसलिए लोग कवि को पागल,दीवाना और न जाने क्या-क्या कहते हैं। मगर कवि को पास जो आनंद होता है वो भला कितने लोगों को नसीब होता है। वो तो एक मदमस्त हुआ पगला होता है.अपनी ही धुन में रमा हुआ...
बोझिल न हुई होती साँसे
गर टीस समझ गए होते
दिल को छोड़ अकेला यूँ
गर तुम सब नहीं गए होते
मदमस्त हुआ फिरता पगला
गर मर्म समझ गए होते
मंजुऋषि को बधाई...
भगवानसिंह हंस
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1 comment:

mann said...

मन का मन से सम्पूर्ण जय लोक मंगल परिवार को सादर प्रणाम.
मेरी इस तुच्छ रचना को पसंद करने के लिए श्री भगवानसिंह हंस जी को मेरा धन्यवाद.
दया निर्दोषी जी ने जिस प्रकार मेरे आगमन की प्रसन्नता व्यक्त की है उसकी भी मैं तहेदिल से शुक्रगुजार. दया जी बधाई के लिए मेरा धन्यवाद स्वीकार करें.
मुझे प्रोत्साहित करने के लिए मुकेश परमार जी को भी मैं हार्दिक धन्यवाद देती हूँ.
आप सभी के स्नेह और आशीर्वाद की इच्छुक
मंजु ऋषि (मन )