
आदरणीय नीरवजी आपका व्यंग्य आलेख पढ़ा. झगड़े के लिए किस तरह एजेंडे की जरूरत पड़ती है,ये आपने बड़े रोचक ढंग से समझाया है। अब जो कोई भी झगड़ा करने के लिए घर से निकलेगा वो पहले झगड़े के एजेंडे का होमवर्क करके ही निकलेगा। एक छोटी-सी घटना को आप किस तरह बुनते हैं,यह कलाकारी ही आपकी विशेषता है। जो आपको भीड़ से अलग करती है,बधाई..इस संवाद के तो कहने ही क्या हैं-
मैं और मेंरी का दूध एक नितांत व्यक्तिगत,अंतरंग प्रक्रिया भला झगड़े का कारण कैसे बन सकती है, यह सोच-सोचकर मैं गहरे सोच में पड़ गया। आखिर ये हैं कौन दाल-भात में मूसलचंद। हमारी पर्सनल लाइफ में टांग अड़ानेवाले। मगर उनकी रावणी मुद्रा देखकर मुझे अपने पर ही शक होने लगा। मैं एक अनकहे अपराधबोध से भरने लगा। मैं सोचने लगा कि कहीं बचपन में मैंने अपनी मां के धोखे में इन भाईसाहब की मां का दूध तो नहीं पी लिया था जो आज ये साठ साल पहले हुई दूध की डकैती का हिसाब-किताब करने चले आए हैं। मुझो सोच में डूबा देखकर वे किटकिटायमान मुद्रा में बोले,सोच क्या रहा है। मैंने कहा कि- मैं सोच रहा हूं कि दूधवाला अभी तक क्यों नहीं आया। आ जाता तो चाय के प्याले पर बैठकर,खूब चिंतन करते हुए हम आपके यक्ष-प्रश्न का उत्तर तलाशते। क्योंकि आप भी तो साठ साल पहले की हुई वारदात की अचानक फाइल खोलकर मेरे बयान मांगने चले आए हैं। इतनी फुर्ती से बयान हेना मेरे वश की बात नहीं है। ऐसे संगीन मामलों में फटाक से बयान तो पेशेवर गवाह ही दे सकते हैं। सच्चे आदमी को तो काफी सोच-विचारकर ही बोलना पड़ता है।
आपको एक अच्छे व्यंग्य हेतु बधाई...
डाक्टर प्रेम लता नीलम
----------------------------------------------------------------
No comments:
Post a Comment